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________________ है- जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। जेण वियाणइ से आया। तं पडुच्च पडिसंखाये- 1 / 5 / 5 / इस प्रकार, वह ज्ञान को आत्म-स्वभाव या आत्म-स्वरूप बताता है। जहां आधुनिक मनोविज्ञान चेतना के ज्ञान, अनुभूति और संकल्प ऐसे तीन लक्षण बताता है, वहां आचारांग केवल आत्मा के ज्ञान लक्षण पर बल देता है। स्थूल दृष्टि से देखने पर यहीं दोनों में अंतर प्रतीत होता है, किंतु अनुभूति (वेदना) और संकल्प यह दोनों लक्षण शरीराश्रित बद्धात्मा के हैं, अतः ज्ञान ही प्रथम लक्षण सिद्ध होता है। वैसे आचारांगसूत्र में तथा परवर्ती जैन ग्रंथों में भी मनोविज्ञान सम्मत इन तीनों लक्षणों को देखा जा सकता है, फिर भी आचारांगसूत्र का आत्मा के विज्ञाता स्वरूप पर बल देने का एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक कारण है, क्योंकि आत्मा की अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक अवस्था में पूर्णतः समभाव या समाधि की उपलब्धि सम्भव नहीं है, जब तक सुखदुखात्मक वेदना की अनुभूति है या संकल्प-विकल्प का चक्र चल रहा है, आत्मा परभाव में स्थित होता है, चित्त समाधि नहीं रहती है। आत्मा का स्वरूप या स्वभाव धर्म तो समता है, जो केवल उसके ज्ञाता-द्रष्टा रूप में स्वरूपतः उपलब्ध होती है। वेदक और कर्ता रूप में वह स्वरूपतः उपलब्ध नहीं है। ' मन का ज्ञान साधना का प्रथम चरण . निग्रंथ साधक के लक्षणों का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहता है - जे मणं परिजाणई से निग्गंथे जे मणे अपावए- 2 / 15 / 45 / जो मन जानता है और उसे अपवित्र नहीं होने देता है, वही निग्रंथ है, इस प्रकार, निग्रंथ श्रमण की साधना का प्रथम चरण है, मन को जानना और दूसरा चरण है, मन को अपवित्र नहीं होने देना। मन की शुद्धि भी स्वयं मनोवृत्तियों के ज्ञान पर निर्भर है। मन को जानने का मतलब है, अंदर झांककर अपनी मनोवृत्तियों को पहचानना, मन की ग्रंथियों को खोजना, यही साधना का प्रथम चरण है। रोग का ज्ञान और उसका निदान उससे छुटकारा पाने के लिए आवश्यक है। आधुनिक मनोविज्ञान की मनोविश्लेषण विधि में भी मनोग्रंथियों से मुक्त होने के लिए उनका जानना आवश्यक माना गया है। अंतर्दर्शन और मनोविश्लेषण आधुनिक मनोविज्ञान की महत्त्वपूर्ण विधियां हैं, आचारांग में उन्हें निग्रंथ साधना का प्रथम चरण बताया गया है। वस्तुतः, आचारांग की साधना अप्रमत्तता की साधना है और यह अप्रमत्तता अपनी चित्त-वृत्तियों के प्रति सतत जागरूकता है। चित्त वृत्तियों का दर्शन सम्यक् दर्शन है, स्वस्वभाव में रमना है। आधुनिक मनोविज्ञान जिस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए मनोग्रंथियों को तोड़ने
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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