________________ जाकर रहना उपसम्पदा सामाचारी है। यह तीन प्रकार की होती है- ज्ञान-सम्बंधी, दर्शनसम्बंधी और चारित्र-सम्बंधी। ____ इस प्रकार संयम और तप से परिपूर्ण साधुओं को अपने मूलगुण और उत्तरगुण की रक्षा के लिए उपयुक्त सामाचारी का अच्छी तरह पालन करना चाहिए, जिससे अनेक भवों के संचित कर्मों का क्षय हो एवं उन्हें संसार-सागर से मुक्ति अर्थात् भव-विरह प्राप्त हो सके। त्रयोदश पंचाशक तेरहवें पंचाशक में 'पिण्डविधानविधि' का वर्णन किया गया है। पिण्ड अर्थात् भोजन या आहार करते समय आहार की शुद्धता को ध्यान में रखना आवश्यक है। जैन परम्परा में जो आहार उद्गम आदि दोषों से रहित है, वही शुद्ध है। आहार सम्बंधी दोष तीन प्रकार के हैं - उद्गम-दोष, उत्पादन-दोष और एषणा-दोष। इन तीनों के क्रमशः सोलह, सोलह और दस अर्थात् कुल बयालीस भेद हैं, जो इस प्रकार हैं उद्गम दोष - उद्गम दोष आहार बनाने सम्बंधी दोष हैं। जैसे साधु के लिए भोजन पकाना आदि उद्गम दोष कहलाते हैं। ये दाता से सम्बंधित हैं। इनके निम्नलिखित सोलह प्रकार हैं (1) आधाकर्म - किसी साधु विशेष को लक्ष्य कर बनाया गया भोजन आधाकर्म दोष वाला है। (2) औद्देशिक - साधुओं को भिक्षा देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन औद्देशिक है। (3) पूर्तिकर्म - शुद्ध आहार में अशुद्ध आहार मिलाकर पूरे आहार को अशुद्ध बना देना पूर्तिकर्म दोष है। (4) मिश्रजात - गृहस्थ और साधु दोनों के मिश्रित उद्देश्य से बनाया गया भोजन मिश्रजात दोषवाला है। (5) स्थापना - साधु को देने के लिए आहार का एक भाग अलग निकाल कर रख देना स्थापना दोष है। (6) प्राभृतिका - साधुओं के आ जाने के कारण निश्चित समय से पूर्व भोज आदि का आयोजन करके साधु को भिक्षा देना प्राभृतिका दोष है। .. (106)