________________ पुरोवाक् ... भारतीय पुराण वाङ्मय में जैन धर्म के मूल्य, आचार, सांस्कृतिक इतिहास और मान्यताएँ किस प्रकार प्रतिफलित देखे जा सकते हैं, इसका शोधात्मक और विशद अध्ययन प्रस्तुत करने वाला डॉ. चरणप्रभा साध्वी जी का शोध प्रबन्ध प्रकाशित हो रहा है, यह बहुत हर्षप्रद है। सनातन संस्कृति और श्रमण संस्कृति के पारस्परिक प्रभावों, प्रत्यक्ष या परोक्ष अन्त: क्रियाओं आदि के अध्ययन के साथ-साथ इनके मूल्यों पर समन्वयात्मक दृष्टिपात करने की जो सत्प्रवृत्ति पिछले कुछ दशकों से पनपी है यह मेरे विनीत मत में स्वागत योग्य है। यह वदान्य शोध दृष्टि निष्पक्ष और तथ्यहितैषी अध्ययनों के लिए अनिवार्य है। दुर्भाग्य से हमने अनेक शताब्दियाँ ऐसी देखी हैं जिनमें “वादे वादे जायते तत्त्वबोधः” की मान्यता को इतने कट्टर निर्वचन के साथ लागू किया गया कि इस देश के विभिन्न पन्थों के विद्वान एक-दूसरे के पक्ष का खंडन करने तथा एक-दूसरे को नीचा दिखाने में अपनी समस्त बहुमूल्य प्रतिभा, विपुल ऊर्जा तथा प्रभूत श्रम को झोंकने में ही वैदुष्य की चरम परिणति समझते थे। इस प्रकार के खंडन-मंडनों में बहुधा तथ्यान्वेषी दृष्टि ओझल हो जाती थी, पारस्परिक राग-द्वेषों का ही ताण्डव होता रहता था। इससे जो अन्य दुष्परिणाम, कलह, रक्तपातादि होते.थे वे अलग। न केवल वैदिक और श्रमण धाराओं के विद्वानों की बहुधा यह दृष्टि बनी, बल्कि शैवों और वैष्णवों की, सनातनियों और आर्य-समाजियों की पारस्परिक झड़पें, शास्रार्थों के दृश्य कई बार व्यक्तिगत आक्षेपों तक में परिणत हो जाते थे, यह पिछली पीढ़ी ने खेदपूर्वक देखा ही था। पिछले कुछ वर्षों से यह एहसास पनपा है कि इसी एक धरती पर सहस्राब्दियों से सहअस्तित्व में रही इन दो धाराओं में क्या इतने युगों से कभी पारस्परिक समन्वय नहीं हुआ होगा? एक-दूसरे का पारस्परिक प्रभाव, अन्योन्य-संप्रेषणात्मक संवाद-कभी तो हुए होंगे? यदि हाँ तो उनका स्वरूप क्या है? इस मानवीय महासागर को