SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काल का विभाजन जैन दर्शन में दो प्रकार का काल बताया गया है-निश्चयकाल तथा व्यवहार काल / लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर पृथक्-पृथक् कालाणु (काल के अणु) स्थित हैं, अतः इन कालाणुओं को निश्चय काल कहते हैं। आपसी व्यवहार के निमित्त स्थिर किए गये समय, आवली, उच्छवास आदि व्यवहार काल है।" अर्थात् जीव तथा पुल के परिवर्तन (नूतन तथा जीर्णपर्याय) को एवं घड़ी, घण्टा रूप स्थिति को व्यवहार काल कहते हैं। इसी कारण से जीव तथा पुगल सम्बन्धी परिणाम (पर्याय) से, देशान्तर में संचलनरूप अथवा गोदोहन पाक आदि परिस्पन्द (हलन-चलन) की धारक क्रिया से तथा दूर एवं निकट देश में चलनरूप कालकृत परत्व-अपरत्व से यह काल बाना जाता है। अत: यह व्यवहार काल परिणामादिलक्षण रूप कहा है। अपने उपादान कारण में स्वयं परिणमनशील द्रव्यों के परिणमन में कुंभकार के चक्र के प्रमण में उसके कील के समान जो सहकारी होता है उसे वर्तना कहते हैं, वर्तना को ही निश्चय काल कहते हैं। भगवती सूत्र में व्यवहार काल को इस प्रकार से बताया गया है• आकाश के एक प्रदेश में स्थित पुल परमाणु मंद गति से जितनी देर में उस प्रदेश से लगे हुए पास के दूसरे प्रदेश पर पहुंचता है,उसे समय कहते हैं। * असंख्यात सर्मयों का समुदाय एक आवलिका कहलाती है। . असंख्यात आवलिकाओं का.एक उच्छवास तथा उतनी ही आवलिकाओं का एक निश्वास होता है। एक श्वासोच्छवास को प्राण कहते हैं। * सात स्तोकों का एक लव * 77 लवों का एक मुहूर्त * तीस मुहूतों का एक अहोरात्र * 15. अहोरात्र का एक पक्ष . . दो पक्षों का एक मास * दो मासों की एक ऋतु * तीन ऋतुओं का एक अयन * दो अयन का एक संवत्सर (वर्ष) . .. पाँच वर्ष का एक युग .. 59 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy