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________________ हरिवंशपुराण में सेश्वर सांख्यपरंपरा सांख्य पुरुष से ब्रह्म का समन्वय करते हुए पुरुष को कारण भूत ब्रह्म से उत्पन्न बतलाया है। ब्रह्म तथा पुरुष में निकट सम्बन्ध दिखाकर सांख्य तथा अन्य दर्शनों के मौलिक भेद का परिहार किया गया है।९० परमात्मा की सत्ता भी सांख्य योग की भाँति निराकार निर्गुण परात्पर सत्ता, सृष्टि कारणता से परे बताई है। परन्तु बहुशः ईश्वर का पुराणों में कारणरूप सगुण वर्णन ही है। पुराणों में योगदर्शन पातंजल योग के तत्वों (सिद्धान्तों) का उल्लेख एक नहीं, लगभग सभी पुराणों में आया है। पुराणों में प्रधानतया ज्ञान, क्रिया एवं भक्तियोग वर्णित है। अष्ट योगांगों का विस्तृत रूप से विवेचन बहुत से पुराणों में उपलब्ध होता है। शिवपुराण में यम, नियम, आसन, प्रत्याक्षर, धारणा, ध्यान समाधि-इन अष्टांगों का विवेचन करते हुए समाधि के अन्तर्गत आने वाली बाधाओं का भी विवेचन किया गया है तथा अनेक प्रकार की सिद्धियों (साधना द्वारा मिलने वाली उपलब्धियों) को परमतत्व की प्राप्ति में बाधक ही बताया गया है। भागवत में योग सम्बन्धी विचारधारा गीता के योग से साम्य रखती है। यहाँ योग के दो भाग हैंज्ञानयोग, भक्तियोग। हरिवंशपुराण में योगदर्शन के तप, योगसिद्धि के अधिकारी और साधन के सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया गया है।०२ ब्रह्मपुराण में योग तथा सांख्य में एकत्व की . स्थापना उसी प्रकार महत्वपूर्ण है,०३ जिस प्रकार गीता में सांख्य और योग की मौलिक एकता की ओर संकेत किया गया है। कूर्मपुराण में केवल कर्म और भक्तियोग ही नहीं, योग की सैद्धान्तिक विशेषताएँ, अष्टांग योग और उनके साधनादि का भी विशद् विवेचन हुआ है / 05 प्रमुखतया वर्णित उपर्युक्त दर्शनों के अतिरिक्त मीमांसादर्शन आदि अद्वैत, विशिष्टाद्वैत विचारधारा आदि का भी यथास्थान उल्लेख प्राप्त होता है। यद्यपि शंकर एवं रामानुज तो पुराणकाल के काफी बाद के हैं / तथापि अद्वैत, विशिष्टाद्वैत विचारधारा इनसे पहले उपनिषद् एवं गीता में भी उपलब्ध है। पुराणों में अद्वैत एवं विशिष्टाद्वैती विचारधारा का प्रवेश उपनिषदों के माध्यम से ही हुआ प्रतीत होता है। इन दार्शनिक विचारधाराओं के अतिरिक्त पुराणों में श्रमण आचार-विचार भी प्रचुररूपेण उपलब्ध होते हैं। सच तो यह है कि पौराणिक काल का विस्तार काफी लम्बे समय तक रहा है। अतः पुराणों में नानाविध आचार-विचार एवं दार्शनिक सिद्धान्तों का समावेश होना स्वाभाविक है। इन्हीं विभिन्न तथा विस्तृत विवेचनों के कारण पुराणों का वैदिक संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है। 000. __ 49 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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