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________________ पुराणों का प्रधान दर्शन माना है। क्योंकि लगभग सभी पुराणों में सांख्य के मुख्य सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं। सांख्य में 25 तत्व स्वीकार किये हैं, इनके संयोग से जगत की सृष्टि होती है। इसी प्रकार हरिवंशपुराण में भी सांख्य वर्णित प्रकृति का विवेचन हुआ है; प्रकृति को व्यक्ताव्यक्त और सनातन कहा गया है। इसमें प्रवेश करके योगविद् मुक्तावस्था को प्राप्त होते हैं। सांख्य द्वारा मान्य तत्वों का विवेचन विष्णुपुराण के अन्तर्गत स्पष्ट परिलक्षित होता है। सांख्य द्वारा प्रतिपादित सृष्टिक्रम ही पुराण में सर्गरूप में व्यक्त है, जैसा कि सांख्यकारिका में कहा गया है- .. . प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकार ए तस्माद् गणश्च षोडशकः / / .. तस्मादपि षोडशकात् पंचभ्य: पंचभूतानि। इसी क्रम को प्रतिपादित करते हुए हरिवंशपुराण में प्रकृति को कारण कहा गया है, जिससे महत् की उत्पत्ति हुई, कृष्ण को उस प्रकृति का “कारणात्मक प्रधान पुरुष” कहा गया है। महत् से अहंकार, अहंकार से पंचतन्मात्राएं तथा पंचमहाभूत उत्पन्न होते हैं। पुरुषरूप कृष्ण को इन कारणों का परिणाम कहा गया है।५।। भागवतपुराण में प्रकृति को कारणरूप तथा पुरुष को कार्यरूप माना है। कार्यरूप होने से सुख-दुःख के भोग का दायित्व पुरुष प्रर है। ब्रह्मपुराण में सांख्य सिद्धान्त व्यापक रूप से मिलते हैं। इसमें सांख्य तथा योग के पोषकों को अपने-अपने सिद्धान्तों की उत्कृष्टता सिद्ध करते हुए दिखलाया गया है। हरिवंशपुराण के सांख्य-विषयक स्थलों में सांख्य के प्रकृति, पुरुष तथा 24 तत्वों के अतिरिक्त कोई विशिष्ट शब्दावली प्रयुक्त नहीं है। सांख्य की भांति विकारों से पर-प्रकृति तथा प्रकृति से पर-पुरुष का वर्णन शिवपुराण में दृष्टिगत होता है।९ सांख्यदर्शन के समान ही विष्णुपुराण के सांख्य विषयक अध्याय में 28. बाधाएँ उल्लिखित हैं।° श्री दासगुप्त ने इन 28 बाधाओं को सांख्यकारिका की 28 बाधाएँ मानी हैं।११ ___ सांख्यवत् प्रकृति को जड़ अचेतन तथा पुरुष को चेतन तत्व मानते हुए सृष्टि का प्रधान कारण प्रकृति को ही माना है। सांख्य के साथ इनकी समानताओं के होते हुए भी पूर्णतया एकमत नहीं होने का कारण यही है कि पुराणों में सेष्ठर सांख्यवर्णित है। विष्णुपुराण में सांख्य के पुरुष से विष्णु का एकीभाव विष्णुपुराण के सेश्वर सांख्य की सूचना देता है।९२ हरिवंश 3 कूर्म आदि में भी इसी प्रकार सेश्वर सांख्य उपलब्ध होता है। गीता में भी इस मत पर प्रकाश डाला गया है। शास्त्रीय सांख्य इससे भिन्नता रखता है। 'सांख्यकारिका' निरीश्वर सांख्य का प्रमुख ग्रन्थ हैं। सेश्वर सांख्य तथा निरीश्वर सांख्य; इस प्रकार सांख्य दो प्रकार का हो जाता है।९६ पुराण परिचय / 48
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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