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________________ इसमें सन्देह नहीं है। संस्कृति के विकास का उसे प्रारम्भ काल या उषकाल कहा जा सकता है। इस प्रकार वैदिक साहित्य में ऋषभदेव का प्रचुर वर्णन उपलब्ध होता है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि ऋषभ का व्यक्तित्व बहुत प्रभावक था तथा जनता में प्रतिष्ठित था। जिसकी उपेक्षा करना संभव नहीं था, इसीलिये श्रमण तथा ब्राह्मण दोनों ही संस्कृतियों में वह उल्लिखित था। ऋषभदेव एवं शिव ___ पं. कैलाशचंद्र, डॉ. राजकुमार जैन इत्यादि चिन्तकों ने वृषभदेव तथा शिव के एकीकरण की भी सम्भावना प्रकट की है। डॉ. राजकुमार जैन ने वृषभदेव तथा शिव सम्बन्धी प्राच्य मान्यताओं का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए तथा विमलसूरि कृत पउमचरिउं के जिनेन्द्ररूद्राष्टक को उद्धृत करते हुए लिखा है कि 'जिनेन्द्ररूद्राष्टक में भी जिनेन्द्र भगवान का रूद्र के रूप में स्तवन इस प्रकार से किया है कि "जिनेन्द्र रूद्र पापरूपी अन्धकासुर के विनाशक हैं, काम, क्रोध एवं मोह रूपी त्रिपुर के दाहक हैं। उनका शरीर तप रूपी भस्म से विभूषित है, वे संयम रूपी वृषभ पर आरूढ हैं, संसार रूपी करी (हाथी) को विदीर्ण करने वाले हैं, निर्मल बुद्धि रूपी चन्द्ररेखा से अलंकृत हैं, शुद्ध भाव रूपी कपाल से सम्पन्न हैं, व्रत रूपी मानव मुण्डों के मालाधारी हैं, दश धर्म रूपी खट्वांग से युक्त हैं, तपः कीर्ति रूपी गौरी से मण्डित हैं, सात भय रूपी उद्दाम डमरू को बजाने वाले हैं, अर्थात् वह सर्वथा भीति रहित हैं, मनोगुप्ति रूपी सर्वपरिकर से वेष्टित हैं, निरन्तर सत्य वाणी रूपी विकट जटा कलाप से मण्डित हैं तथा हुंकार मात्र से भय का विनाश करने वाले हैं।" .. लोक साक्ष्यों के आधार पर शिव तथा ऋषभ में अनेक समानताएँ हैं शिव के कैलाश वास तथा उनसे सम्बन्धित शिव रात्रि की तुलना में जैन परम्परानुसार भगवान ऋषभदेव के आयु के अन्त में अष्टापद (कैलाश) पर्वत पर पहुँचकर योगनिरोध तथा कर्मक्षय द्वारा माघकृष्णा चतुर्दशी के दिन अक्षय शिवगति (मोक्ष) प्राप्त करना द्रष्टव्य है। ___गंगावतरण के संदर्भ में लिखा है ऋषभदेव को असर्वज्ञ दशा में जिस स्वसंवित्ति रूपी ज्ञान गंगा की प्राप्ति हुई, उसकी दिव्य धारा दीर्घकाल तक उनके मस्तिष्क में प्रवाहित होती रही और उनके सर्वज्ञ होने के पश्चात् वही धारा उनकी दिव्य वाणी के माध्यम से प्रकट होकर संसार के उद्धार के लिये बाहर आई तथा आर्यावर्त को पवित्र एवं आप्लावित कर दिया। त्रिशूल धारी शिव के समान ऋषभदेव रत्नत्रय युक्त थे। 17 / पुराणों में जैन धर्म .
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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