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________________ में मूल गुण के रूप में स्वीकार किया गया है। जैन धर्म के इस वैशिष्ट्य से भी पुराणों का मन्तव्य समानता रखता है। अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व देते हुए अग्नि पुराण में भी यही प्रतिपादित किया गया है-अहिंसा हस्ती-पाद के समान है, जिसके अन्तर्गत अन्य सभी आचार समा जाते हैं अर्थात् सत्य-अस्तेय आदि सभी में अहिंसा प्राणतत्त्व के समान है भूतपीड़ा हहिंसा स्यादहिंसाधर्म उत्तमः। - यथा गजपदेऽन्यानि पदानि पथगामिनाम्।५।। इसके अतिरिक्त जैन धर्म के समान ही निवृत्तिवादी विचार भी पुराणों में बहुशः उपलब्ध होते हैं, जिनमें वैदिक कर्मकाण्ड का पर्याप्त विरोध किया गया है। इस सन्दर्भ में मार्कण्डेय पुराण में सुमति का कथन महत्त्वपूर्ण है। उसने प्रवृत्ति मार्ग का स्पष्ट विरोध करते हुए कहा कि “मैं वेदत्रयी के अध्ययन से उत्पन्न; अधर्म से समृद्ध और शुद्ध पाप फल के सदृश इस दुःख समुदाय को छोड़कर जाऊंगा। मुझे तत्त्व-ज्ञान उत्पन्न हो गया है, अतः मुझे वेदों से क्या प्रयोजन है? इस प्रकार से पुराणों में अनेक स्थलों पर अवैदिक विचारधाराएँ प्रवाहित हैं तथा जहाँ-जहाँ भी निवृत्ति मार्ग का उल्लेख हुआ है, वहाँ-वहाँ हिंसक यज्ञादि का स्पष्टतः विरोध किया गया है तथा भावशुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। इतना ही नहीं. जैन धर्म के तुल्य ही पुराणों में अनेक वैदिक मान्यताओं का खण्डन किया गया है। वैसे वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" का विरोध करते हुए इसे महान् अधर्म बवाया गया है तथा वैदिक परम्परा में निश्चित वर्णाश्रम-व्यवस्था को भी पुराणों में अनिवार्य नहीं माना गया है। आचार को आत्म-विशुद्धि का एक प्रमुख साधन बताते हुए जगत् के समस्त विषयों तथा उनकी आसक्ति से निवृत्तिपरक सन्देश भी पुराणों में जैन धर्म के त्याग धर्म के समान ही है। जिस प्रकार से जैन दर्शन में जगत के सभी विषयों में अनासक्ति का सन्देश देते हुए जगत् के प्रति वैराग्यपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया है, वैसे ही पुराण भी व्यक्ति को विषयों के प्रति अनासक्ति की प्रेरणा देते हुए जगत् को नश्वर, अस्थायी एवं दुःखपूर्ण बताते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि पुराणों का लक्ष्य भी भौतिक सुखों की प्राप्ति का न होकर जैन दर्शन के समान मुक्त होने का है। इसीलिए पुराणों में शुभाशुभ समस्त कर्मों को क्षीण (समाप्त) कर देने का विवेचन आता है। जगत के समस्त तत्त्व “सत् होने से नित्य भले ही हैं, किन्तु आत्मा के साथ उनका स्थायी सम्बन्ध नहीं है, उनमें परिवर्तन अर्थात् उत्कर्ष-अपकर्ष चलते रहते हैं। जैन दर्शन की इस विश्व-विवेचना के सदृश ही विष्णु पुराण का भी मन्तव्य है कि आविर्भाव-तिरोभाव रूप यह जगत् नित्य है, परन्तु आत्मा के साथ इसका सम्बन्ध अस्थायी है। समस्त उपसंहार / 270
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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