________________ है, इस मलिनता के कारण ही आत्मा जन्म एवं पुनर्जन्म के चक्र में घूमा करता है। आत्मा के साथ कर्म एवं माया का संयोग ही संसार है। ___ अनादिमलभोगान्तं स हेतुरात्मनामेनं निजो नागन्तुक: मल: एक बार मुक्त होने के बाद आत्मा को पुनः बंधन प्राप्त नहीं होता है। अतः यह कर्ममल आत्मा के साथ अनादिकालीन है, जिसके कारण आत्मा विभिन्न योनियों में परिप्रमण करता है। वैदिक संस्कृति में आत्मा को भ्रमण कराने वाला तथा कर्मों के कर्ता के रूप में ईश्वर को माना है, किन्तु जैन दर्शन में ईश्वरकर्तृत्व का खण्डन किया गया है। बैन दर्शन में ईश्वरकर्तृत्व के स्थान पर आत्मकर्तृत्व को माना गया है। उसके अनुसार आत्मा स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता है, दूसरों के द्वारा कृत कर्मों का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। व्यक्ति स्वकृत कर्मों का ही फल भोगता है। इस आत्मकर्तृत्व का पुराणों में भी वर्णन है। पुराणों में स्थान-स्थान पर यह निरूपित किया गया है कि आत्मा स्वकृत कर्मों को ही भोगता है। जैसा शुभ या अशुभकर्म करता है वैसा ही फल-भोग भी उसे करना पड़ता है। जीव के कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व को प्रतिपादित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है-“कर्ता भोक्ता च देहिनः।१२ कर्मवाद का विस्तृत विवेचन करते हुए गरुड़ पुराण में स्पष्ट बताया गया है कि कर्म अवश्य ही कर्ता के पास पहुँचता है और उसे फल-भोग करना पड़ता है भूतपूर्वकृतं कर्म, कर्तारमनुतिष्ठति। यथा धेनुसहस्रेषु, वत्सो विंदति मातरम्।।३। ___ पुराणों में जैनमत के समान ही यह भी बताया गया है कि सुख-दुःख का दाता या हर्ता कोई भी नहीं है। मनुष्य अपने ही किये हुए कर्मों के अनुसार सुख-दुःख भोगता है न दाता सुखदुःखानां, न च हर्तास्ति कश्चन / स्वकृतान्येव भुंजते दुःखानि च सुखानि च // 4 जैसी-जैसी व्यक्ति शुभ या अशुभ प्रवृत्तियाँ करता है, वैसे-वैसे शुभाशुभ कों का बंधन उसे प्राप्त होता है। उन कर्मों के बंधन को घटाने के लिए ही तप-ध्यान आदि साधन बताये गये हैं। जो व्यक्ति कर्मनाश के लिए उद्यत होता है, उसके लिए कुछ गुण अर्थात् सदाचाररूपी भूमिका आवश्यक है। व्यक्ति की संस्कृत (संस्कारित), मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियाँ सदाचार हैं। प्रत्येक व्यक्ति के लिए सदाचार की महती आवश्यकता है, क्योंकि उसके अभाव में अन्य बड़ी-बड़ी बातें करना निरर्थक है। आचरणगत प्रमुख गुण के रूप में अहिंसा का अत्यधिक महत्त्व जैन धर्म में है। . जैन धर्म में अहिंसा की सूक्ष्म तथा विशिष्ट व्याख्या की गई है। उसे समस्त गुणों 269 / पुराणों में जैन धर्म