SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन की भाँति जगत् की अनित्यता का निरूपण पुराणों में भी है, परन्तु साथ ही साथ जैनोक्त जगत्-स्वरूप के तुल्य उसकी नित्यता भी प्रतिपादित है। जगत् या लोक वस्तुतः जीव तथा अजीव का सम्मिश्रण है। जगत् के सम्बन्ध में यह कथन सत्य नहीं है कि वह कभी उत्पन्न हुआ एवं यह मत भी अनुचित है कि उसमें किसी भी प्रकार परिवर्तन नहीं आता। जगत् सदा बना रहता है, न कभी उत्पन्न होता है और न ही कभी उसका पूर्ण विनाश होता है। इसमें परिस्थितियों के परिवर्तन का चक्र चलता रहता है। कभी उसकी ह्रासावस्था होती है तो कभी विकासावस्था; ह्रास के बाद विकास और विकास के बाद हास का चक्र अनवरत घूमता रहता है। समय के साथ परिवर्तन भी होता रहता है। . जगत की नित्यता के साथ ही ईश्वर के सष्टि-कर्तत्व का भी निरसन हो जाता है। ईश्वर के सम्बन्ध में पुराणों का यद्यपि जैनदर्शन से मतवैभिन्य है, परन्तु पुराणों में वर्णित मुक्त आत्माओं का जैनधर्म में वर्णित ईश्वर-स्वरूप से पर्याप्त साम्य है। वैदिक संस्कृति के अवतारवाद से भिन्न जैनदर्शन में आत्मा से परमात्मा बनने की अवधारणा है, जिसका पुराणों में पर्याप्त समर्थन है। पुराणों में भी “आत्मा से परमात्मा”, “सगुण से निर्गुण” (साकार से निराकार) बनने का स्पष्टतः उल्लेख है। मुक्तात्मा निर्गुण अर्थात् मुक्त होने के पश्चात् पुनः सगुण नहीं होता। यहाँ समस्त द्वन्द्वों से परे, शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा को परमात्मा कहा गया है। वह परमात्मा पुनः साकार नहीं होता, जबकि वैदिक परम्परा में इसके विपरीत ईश्वर के निराकार से साकार होने के वर्णन मिलते हैं। यही नहीं, ईश्वर को एक तथा सर्वव्यापक बताया. है, जबकि जैनधर्म में ईश्वर एकमात्र नहीं है। एक व्यक्ति विशेष को ईश्वर न मानते हुए समस्त मुक्तात्माओं को ईश्वर की संज्ञा दी है। पुराणों में भी यद्यपि ईश्वर का कर्तारूप, एकत्व तथा सर्वव्यापकत्व उल्लिखित है किन्तु इसके अतिरिक्त जहाँ साधना द्वारा मुक्त आत्माओं का वर्णन है, वहाँ उनके अनेकत्व एवं प्रत्येक का स्वतन्त्र अस्तित्व स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता इस प्रकार से पुराणों के अनेक मन्तव्य जैनधर्म के समान है। उपर्युक्त मतों के अतिरिक्त आहेतधर्म के रूप में नामशः भी पद्म, विष्णु आदि पुराणों में जैनधर्म का उल्लेख है। पुराण पर्याप्त प्राचीन हैं। वस्तुतः जैनधर्म प्राचीनतम है। यह अलग बात है कि जैनसाहित्य 2000 वर्ष से पहले का उपलब्ध नहीं है; फिर भी जैनेतर ग्रंथों में जैनधर्म की समकालीन वास्तविक स्थिति का सुन्दर चित्रण है। विषय प्रवेश /8
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy