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________________ पद को प्राप्त कर सिद्ध संज्ञा को ग्रहण करती है।३९ सर्वथा शुद्ध, बुद्ध और सिद्ध रूप आत्मा की पर्याय मोक्ष कहलाती है। उववाईसूत्र में सिद्धि अथवा मोक्ष-स्थान . के सम्बन्ध में बतलाया गया है कि सिद्ध भगवान् लोक से आगे, अलोक से लगकर स्थित होते हैं (लोकाग्र भाग पर स्थित है)। वहाँ तक आत्मा के पहुंचने का कारण भी स्पष्ट किया गया है-जैसे पाषाण आदि पुद्गल का स्वभाव नीचे की ओर गति करने का है, वायु का स्वभाव तिरछी (तिर्यक) गति का है, वैसे ही आत्मा का ऊर्ध्वगति स्वभाव है। जब तक वह कर्मबद्ध रहता है, तब तक उसमें गुरूता (भारीपन) रहती है, अतः वह ऊर्ध्वगति नहीं कर पाता तथा जिस प्रकार तुम्बा स्वभावतः जल के ऊपर तैरता है। परन्तु मृत्तिका के लेप से भारी होने पर वह ऊपर नहीं आ सकता एवं लेप हटते ही वह ऊपर आ जाता है, इसी प्रकार आत्मा कर्मलेप से मुक्त होने पर अग्नि की शिखा की तरह ऊर्ध्वगमन करता है तथा एक ही समय में वह लोकाकाश के अन्तिम छोर तक पहुँच जाता है। आगे अलोकाकाश में गति का निमित्त कारण धर्मास्तिकाय न होने से वहीं मुक्तात्मा की गति रुक जाती है।" यहाँ इस मान्यता का निराकरण हो जाता है कि मुक्तात्मा ऊपर ही ऊपर जाता रहता है। पुराणों के अनुसार जीवन्मुक्त योगी ही शरीर के छूट जाने पर विदेहमुक्त हो जाता है। विदेहमुक्त अर्थात् पूर्णमुक्त आत्मा जिसका अनिर्वचनीय स्वरूप होता है, वह निराकार होता है। ... पूर्णमुक्त (द्रव्यमुक्त) आत्मा शुद्ध स्वरूपावस्था है। इस पर इन दृष्टियों से .. विचार किया गया है- .. 1. भावात्मक, 2. अभावात्मक तथा. 3. अनिर्वचनीय . भावात्मक दृष्टिकोण जैन दर्शनानुसार मुक्त अवस्था में समस्त बंधनों का अभाव हो जाने से आत्मा के निज गुण पूर्णरूप से प्रकट हो जाते हैं। समस्त (आठों) कर्मों का क्षय हो जाने से अष्टगुण प्रकट हो जाते हैं-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, अमूर्तिकपन, अगुरूलघु, अटल, अवगाहना तथा निराबाध / पुराणों में भी आत्मस्वरूप का पूर्णरूप से प्रकट होना अर्थात् चैतन्य पर आच्छादित आवरण के हटने से आत्मा का निज गुण (स्वरूप) प्रगट होना ही परमात्मा होना है, इसलिए मुक्तात्मा को शुद्ध स्वरूप वाला कहा है। आत्मगुण पूर्णतया प्रगट होते ही आत्मा साक्षात् परमात्मस्वरूप हो जाता है। यह सत्यज्ञान, अनन्त परानन्द एवं पर: ज्योतिस्वरूप, अप्रमेय, अनाधार तथा अविकार है।" अभावात्मक दृष्टिकोण मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण करते हुए जैनागम आचारांग में लिखा ईश्वर की अवधारणा / 256
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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