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________________ इसके विपरीत आत्मवादी दर्शन ईश्वर के स्थान पर आत्मा को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके आत्मा ही सर्वशक्तिमान कर्ता-हर्ता है। उनकी आस्था में ईश्वर या परमात्मा कोई अपरिचित वस्तु नहीं, कोई सर्वथा नवीन भिन्न तत्त्व नहीं, किन्तु परम विकसित, सर्व द्वन्द्वमुक्त, इच्छा-द्वेषशून्य आत्मा का ही रूप है। कर्मयुक्त जीव आत्मा है और कर्ममुक्त जीव परमात्मा है। ईश्वर (परमात्मा) को सृष्टि का निर्माता एवं शासक न मानने के कारण जैन दर्शन को अनीश्वरवादी दर्शन कहा जाता है। वस्तुतः जैन दर्शन में परमात्मा की सत्ता का निषेध नहीं किया गया है। एक नहीं, अनन्त परमात्माओं को जैन दर्शन में माना गया है। अनावृत आत्मा को ही परमात्मा माना गया है। इस प्रकार से इस दर्शन में आत्मा का ही अन्तिम रूप परमात्मा है। आत्मवाद के अनुसार आत्मा ही सुख-दुःख का करने वाला तथा उसका फल भोगने वाला है। शुभमार्ग में प्रवृत्त आत्मा स्वयं का सर्वश्रेष्ठ मित्र है और अशुभमार्ग में प्रवृत्त आत्मा स्वयं का निकृष्टतम शत्रु है। गीता के समान ही कर्ता, भोक्ता, मोक्ता जो कुछ भी है, वह स्वयं आत्मा ही है। परमात्मा आत्मा और सृष्टि के बीच में कुछ भी हस्तक्षेप नहीं करता, वह तो निर्विकार, निरंजन सिद्धस्वरूप है। आत्मा को अन्तिम आदर्श माना है, आत्मा को परमात्मा बनने का अधिकारी माना गया है। जैनदर्शन तथा पुराणों में किये गये परमात्मा के विवेचन में कई प्रकार के वैषम्य तथा साम्य दिखाई देते हैं। वैषम्यों के अन्तर्गत प्रमुख भिन्नता अग्रलिखित पुराणों में एक ही ईश्वर की सर्वत्र व्यापकता बताई गई है। उसी के विभिन्न रूप ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि जगत् के रूप में प्रगट होते हैं अर्थात् वह निर्गुण-निराकार भी सगुण हो सकता है तथा सृष्टि की उत्पत्ति, पालन एवं संहार करता है। इस प्रकार वह सृष्टि का निमित्तोपादान कारण है तथा जो उसकी भक्ति करता है, उस पर वह अनुग्रह करता है। उसके अनुग्रह से मुक्ति की प्राप्ति भी होती है। ईश्वर कर्तृत्व ___ पुराणों में वर्णित सृष्टि-वर्णन (सर्गादि वर्णन) से यह विषय अच्छी तरह से स्पष्ट हो जाता है। उनमें सर्गादि की उत्पत्ति के रूप में प्रमुख कर्ता ईश्वर को ही माना गया है। पद्म पुराण के अनुसार प्रारम्भ में मात्र वही एक तत्त्व रहता है। उस समय केवल अत्यन्त घना और गहरा अन्धकार ही रहता है। जिस समय इस विशाल विश्व के सृजन का समय उपस्थित होता है अर्थात् जब भी उसकी ऐसी इच्छा होती है कि जगत् को समुत्पन्न किया जावे तो वही ब्रह्मात्मक ज्योति जिसका कि केवल ज्ञान ही स्वरूप है, अपने आप में लीन विकारों को जानकर इस विश्व की रचना करने का उपक्रम किया करती है। उससे सर्वप्रथम प्रधान का आविर्भाव रहता है। उस अव्यक्त प्रधान से महत् उत्पन्न होता है, जो सात्विक, राजस, तामस के भेद से 247 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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