________________ विकसित हैं। इसके अतिरिक्त गति की दृष्टि से भी जीवों के चार भाग किये हैं—नारक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव। नरक 'नरक के जैनागमों में सात प्रकार बताये गये हैं। पुराणों में यद्यपि नरकों की संख्या इक्कीस बताई है, परन्तु शंकराचार्य का कथन है कि पौराणिकों के अनुसार रौरव आदि सात नरक होते हैं, जहाँ पाप करने वाले लोग अपने फल को भोगने के लिए जाते हैं।३९ नरक में जाने के कारण जैन परम्परा एवं पुराणों में नरक प्राप्ति का मुख्य कारण अशुभकर्म अथवा पापकर्म है। उन कारणों को जैनागमों में इस प्रकार से बताया गया है-इस संसार में जो पापमय जीवन में रत अज्ञानी लोग रौद्र पापकर्मों को करते हैं, वे अत्यन्त भयानक, अत्यन्त अन्धकारयुक्त एवं तीव्र ताप वाले नरक में जा गिरते हैं। जो मनुष्य हलन-चलन करने वाले त्रस तथा स्थावर जीवों की निर्दयतापूर्वक हिंसा करता है और जो शारीरिक पौद्गलिक सुखों के लिए जीवों का उपमर्दन करता है, दूसरों की चीजें हरण करने में ही जीवन की सफलता समझता है और किसी भी व्रत को अंगीकार नहीं करता, वह यहाँ से मरकर नरक में जाता है और स्वकृत कर्मों के अनुसार नाना भाँति का दुःख भोगता है। प्रमुखतः नरक के चार कारण बताये गये हैं। महाआरम्भ, महापरिग्रह, मद्य-माँस सेवन तथा पंचेन्द्रिय वध।। ___इन सभी कारणों का पुराणों में भी उल्लेख है। विवेकहीनता, परदोषदर्शन, अमंगल करना, अपवित्रता, असत्यवचन, आततायी बनना, परस्त्री कामना, सत्य के प्रति ईर्ष्या, निन्दित एवं उद्दण्ड व्यवहार आदि अनेक कारणों से नरक प्राप्ति बताई गई नारकीय दुःख–जैनागमों में नारकीय दुःखों का वर्णन इस प्रकार से है जो अज्ञानीजीव हिंसा, झूठ, चोरी और व्यभिचार आदि करके नरक में जा गिरते हैं। असुर कुमारादि परमाधर्मी देव उन पापियों के कान, नाक और होठों को छुरी से छेदते हैं और उनके मुँह में से जिह्वा को बेंत जितनी लम्बाई भर बाहर खींचकर तीक्ष्ण शूलों से छेदते हैं, रुधिर बहता रहता है और वे रात-दिन बड़े आक्रंदन स्वर से रोते हैं। उनके छेदे हुए अंग को अग्नि में जलाते हैं, उस पर लवणादि क्षार छिड़कते हैं। नारकीय जीव उन परमाधार्मिक देवों के द्वारा पकाये जाने पर न तो भस्मीभूत होते हैं और न ही उस महान् भयानक छेदन-भेदन आदि से कटते हैं, किन्तु अपने किये हुए दुष्कर्मों के फलों को भोगते हुए बड़े कष्ट से समय बिताते रहते हैं। सदैव कष्ट उठाते हुए नारकीय जीवों को पलभर भी सुख नहीं है। एक दुःख के बाद .. 237 / पुराणों में जैन धर्म