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________________ सृष्टि-प्रलय सृष्टि एवं प्रलय के सम्बन्ध में यह तो पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि जगत् नित्य है, सत् है, अतः उसका एकदम पूर्ण नाश तथा उत्पत्ति नहीं होती। स्वाभाविक परिवर्तन अथवा क्षण-क्षण की सृष्टि और क्षण-क्षण के प्रलय उपरान्त वैभाविक पर्याय-जन्म दीर्घकालिक परिवर्तन या स्थूल सृष्टि-प्रलय को जैन दर्शन में स्थान दिया गया, किन्तु वह केवल पुद्गल स्कन्ध और कर्मसहित जीव इन दो द्रव्यों तक ही सीमित है। उसका क्षेत्र भी अति मर्यादित है, क्योंकि ऊर्ध्वलोक और अधोलोक में स्थूल परिवर्तनरूप सृष्टि-प्रलय नहीं है। मध्य लोक में भी ढाई द्वीप के भीतर जम्बूद्वीप का एक भरत और एक ऐरावत, धातकीखण्ड के दो भरत और दो ऐरावत तथा अर्धपुष्कर द्वीप के दो भरत और दो ऐरावत; इन दस क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालचक्र प्रवर्तमान है। इसके फलस्वरूप उत्सर्पिणी काल के आरम्भ में 21000 वर्ष पर्यन्त और अवसर्पिणी काल के अन्त में 21000 वर्ष पर्यन्त प्रलयकाल चलता है, वह भी सम्पूर्ण प्रलय नहीं किन्तु खण्ड प्रलय है / 42000 वर्ष पर्यन्त वृष्टि, फसल, राजनीति, धर्मनीति, ग्राम, नगर, पुर, पाटन, नदी, सरोवर, कोट, किले, पहाड़ आदि क्रमशः निरन्तर क्षय को प्राप्त होते जायेंगे और अवसर्पिणी काल के पाँचवें आरे के अन्तिम दिन सबका उच्छेद होता है। अवसर्पिणी काल के छठे आरे में और उत्सर्पिणी काल के प्रथम आरे में इसी प्रकार की स्थिति बताई गई है। मनुष्य और तिर्यंच बीज मात्र रह जायेंगे। गंगा-सिन्धु नदियाँ रहेंगी, जिनके किनारे-किनारे बीज मात्र मनुष्य और तिर्यञ्च रहेंगे। उत्सर्पिणी के दूसरे आरे के प्रारम्भ में वृष्टि आदि का प्रारम्भ होता है और स्थिति सुधरने लगती है। इसको सृष्टि का आरम्भ काल कहें तो अनुचित नहीं है। वस्तुतः यहाँ प्रलय का अर्थ अपकर्ष और सृष्टि का अर्थ उत्कर्ष-उन्नति है। पुराणों में सृष्टि का अर्थ है-अव्यक्त का व्यक्त होना। जो पदार्थ (तत्त्व) ह्रास काल में अव्यक्त हो जाते हैं, उनका पुनः व्यक्त होना (प्रकट होना) ही सृष्टि है। पुराणों में सृष्टि-प्रक्रिया यह है-पुरुष नाम से अधिष्ठित, प्रकृति के संयोग से महत्तत्व उत्पन्न होता है। -महत्तत्व से त्रिगुण-अहंकार -अहंकार से पंचतन्मात्रा –तन्मात्राओं से पंचमहाभूत . -महाभूतों से चराचर जगत् की संरचना बताई गई है। पौराणिक सृष्टि-वर्णन पर सांख्य का विशेष रूप से प्रभाव पड़ा है। पुराणों में सर्ग नौ प्रकार का बताया. है, जिनमें मुख्यतया सर्ग तीन प्रकार का है - 235 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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