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________________ लगे। इसी दोष के कारण वे सब औषधियाँ देखते-देखते नष्ट हो गई। उन सभी वनस्पतियों को (वस्तुतः) पृथ्वी ने ग्रसित कर लिया था। उन औषधियों के नष्ट होने * पर पुनः प्रान्त हुई प्रजा, क्षुधातुर होकर परमेष्ठी ब्रह्मा की शरण में गई। उन्होंने पृथ्वी का दोहन किया। उसमें सभी बीजों की उत्पत्ति हुई। पुनः ग्राम्य व अरण्य वृक्ष उत्पन्न हुए। फल पकने के पश्चात् सत्रह प्रकार की औषधियों का समूह उत्पन्न हुआ। जब निर्मित औषधियाँ पुनः नहीं उगती थीं, तब उन्होंने उनकी वृद्धि के लिए तथा मनुष्यों की जीविका का विचार किया। तब स्वयम्भू ब्रह्माजी ने कर्म द्वारा उत्पन्न होने वाली हस्तसिद्धि को उत्पन्न किया। तब से लेकर सभी औषधियाँ कृष्टपच्य (हल के द्वारा जोतकर बोई हुई) ही उत्पन्न हुईं। इस प्रकार उन प्रजाओं की जीविका का साधन हो जाने पर, स्वयं ब्रह्माजी ने न्याय और गुणों के अनुसार मर्यादा की स्थापना की। उन्होंने वर्ण और आश्रमों के धर्म तथा धर्मपालक सब वर्गों में उत्पन्न हुए लोगों के लिए धर्म का निरूपण किया।३५ उपर्युक्त विवेचन में सामाजिक व्यवस्था के संस्थापक ब्रह्मा बताये गये हैं, जबकि जैन परम्परा में ऋषभदेव को कर्मभूमि का स्थापक कहा है। पुराणों में वर्णित मनुओं के स्थान पर जैन परम्परा में कुलकरों का वर्णन मिलता है। कर्मभूमि की स्थापना के पश्चात् अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ कायम होती गईं। प्राकृतिक सुविधाएँ घटती गईं। कई प्रकार की प्राकृतिक असुविधाएँ होने लगी, जिसके समाधान के लिए मनुष्यों द्वारा अनेक कार्य किये जाने लगे। शुभ पुगलों तथा परिणामों में अनन्त गुनी हीनता होती जाती है / इस प्रकार के अपकर्ष को प्राप्त करते-करते पंचम आरे के समय में बहुत सी शुभ बातों का सर्वथा अभाव ही हो जाता है। पूर्वकालीन मनुष्य सरल एवं सुबोध्य होते थे, किन्तु इस समय के लोग वक्र एवं जड़बुद्धि वाले होते गए। यह ह्रास बढ़ते-बढ़ते छठे आरे में समस्त सुख-सुविधाएँ समाप्त हो जाती हैं। यह काल सर्वाधिक दुःखद बताया गया है। मनुष्य द्वारा निर्मित भवनादि, समस्त आवश्यक सामग्रियाँ भी विनष्ट हो जाती हैं। मात्र बीजरूप में ही मनुष्यादि प्राणी रहेंगे। इस प्रकार अत्यन्त अपकर्ष के पश्चात् पुनः जिस प्रकार से ह्रास हुआ, उसी क्रम से विकास प्रारम्भ होता है. जो उत्सर्पिणी काल कहलाता है / यद्यपि जैन दर्शन के समान अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल की अवधि पुराणों में नहीं है तथापि ह्रास एवं विकास का वर्णन पुराणों में युगों के रूप में हुआ है। वहाँ भी अवसर्पिणी काल के चार युगों में क्रमशः ह्रास होने का वर्णन है, अन्त में कलयुग में शुभ तत्त्वों का अभाव एवं अशुभ वातावरण की प्रचुरता होती जाती है। ह्रास की अत्यधिकता को ही अन्त में प्रलय की स्थिति बताई है, जिसके बाद फिर से विकास क्रम प्रारम्भ होता है। जगत् - विचार / 234
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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