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________________ का तात्पर्य क्या है? जल प्रतिक्षण बदलता रहता है, परन्तु प्रवाह, वह धारा जिसका वह अविभाज्य अंग है, कभी भी उच्छिन्न नहीं होती है, वह नित्य होती है। सृष्टि के विषय में भी यही प्रवाह-नित्यता का सिद्धान्त कार्यशील मानना चाहिए।"९ . . ____ इस प्रकार सांख्य दर्शन के समान ही पुराण तथा जैन धर्म के अनुसार भी यही आशय है कि असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती और जो कुछ है वह हमेशा से सत् था। उत्पत्ति नई सृष्टि (आरम्भ) नहीं है, प्रलय पूर्ण नाश नहीं है। नाश का अर्थ केवल आकृति का बदलना है, क्योंकि पूर्णविनाश सम्भव नहीं है एवं गति रुकने के बाद दुबारा प्रकट होने की सम्भावना नहीं होने से नित्य गतिशीलता ही मान्य की गई है। जगत् दुःखपूर्ण (अनित्य) जैन दर्शन में जिस प्रकार से जगत् नित्य मानते हुए भी पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अनित्य, नश्वर मानकर जागतिक कार्यों को प्रपन्च अर्थात् दुःखपूर्ण बताया है, उसी प्रकार से पुराणों में भी जगत् की नित्यानित्यता प्रदर्शित है। ... __ जैनागमों में भौतिक सुखों की अनित्यता बताते हुए कहा है-“समय बीता जा रहा है, रात्रियाँ दौड़ी जा रही हैं, मनुष्यों को जो भोग-सामग्री मिली है, वह भी नित्य नहीं है; जैसे वृक्ष के फल (पत्रादि) झड़ने पर पक्षीगण उसे छोड़कर चले जाते हैं। यह जीवन, यह रूप और यौवन बिजली की चमक की भाँति चंचल है, अनित्य है। यह संसार दुःखमय है; जन्म का दुःख, बुढ़ापे का दुःख, रोगों का दुःख, मृत्यु का दुःख, चारों ओर दुःख ही दुःख है, जिसमें बेचारा यह प्राणी क्लेश पाता है। जरा से घिरे हुए तथा मृत्यु से पीड़ित इस संसार में आनंद व शांति कैसी?"१° अज्ञानी मनुष्य समझता है कि यह धन, ये पशु, ये स्वजन एवं ज्ञातिजन मेरी रक्षा कर सकते हैं। ये मेरे हैं, मैं उनका हूँ, किन्तु वास्तव में यह भ्रान्ति है, कोई किसी का त्राण या शरण नहीं है। अन्तिम समय आने पर मृत्यु मनुष्य को ऐसे ही दबोच कर ले जाती है, जैसे सिंह मृग को। उस समय न माता-पिता बचा सकते और न भाई-बंधु / __ इस संसार में जो यह शरीर मिला है, यह भी अनित्य है, अशुचिपूर्ण है, अशुचि पदार्थों से ही उत्पन्न होता है। इस शरीररूपी पिंजरे में आत्म-पक्षी का वास अस्थिर है, यह दुःख एवं संक्लेशों का घर है। जिस संसार को व्यक्ति ने अपना समझ रखा है, वस्तुतः वह उसका नहीं है। सांसारिक काम-भोग अन्य है और आत्मा अन्य है, फिर हम अन्य में आसक्त क्यों हैं? मनुष्य अकेला ही अपना दुःख भोगता है, ज्ञातिजन, मित्र आदि कोई नहीं बँटा सकते, क्योंकि कर्म तो कर्ता का पीछा करता है। इस प्रकार जैन दर्शन में जगत् को अनित्य, अशरण, अस्थिर, दुःखों का स्थान, आत्मा से भिन्न (अन्यत्व) एवं अशुचिपूर्ण माना है। जगत् - विचार / 222
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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