________________ सत्ता भी मानी गई है। सांख्य से प्रभावित होने से वे जगत् को असत् में स्वीकार नहीं करते। जगत् को सत्रूप में स्वीकृत करने के कारण सृष्टि के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया गया है। जगत् - नित्य तथा परिणामी .. “जैनागमों में जगत् को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्य माना गया है। जगत् को ध्रुव (शाश्वत) बताते हुए उसमें उत्पाद-व्यय अर्थात् पर्यायों का परिवर्तन भी बताया है, परन्तु इसका अर्थ पूर्णतया नाश नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र में “लोक" की परिभाषा इस प्रकार से दी गई है धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगोत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं॥ अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-यह षट् द्रव्यात्मक लोक कहा गया है और जहाँ अजीव का केवल एकदेश (भाग) आकाश है, वह अलोक कहा जाता है। जैन दर्शन में विश्व को "सत्” होने से सार्वकालिक नित्य माना गया है, ईश्वरादि द्वारा सृष्ट नहीं माना है। काल की अपेक्षा से जगत् का नित्यत्व प्रतिपादित करते हुए कहा है-“काल की अपेक्षा यह लोक भूतकाल में कभी न था, यह बात नहीं है। वर्तमानकाल में नहीं है, ऐसा भी नहीं है। भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। लोक ध्रुव है, नियत-एक स्वरूप है, शाश्वत-प्रतिक्षण वर्तमान है, अक्षय-अविनाशी है, अव्यय-हानि रहित है, अवस्थित–पर्याय अनन्त होने से किसी न किसी पर्याय में विद्यमान है। नित्य काल की अपेक्षा से उसका अन्त नहीं आ सकता। किसी भी काल में इस जगत् का सर्वथा विनाश नहीं हुआ, न होता है और न होगा। तत्तं ते ण वियाणन्ति ण विणासी कयाइ वि। . .. लोक को नित्य एवं परिणामी मानते हुए पुराणों के अनुसार भी जगत् की सत्ता के रूप में स्थायी सत्ता माना है। परिवर्तित पर्यायों (रूपों) में यह सदैव विद्यमान रहता है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि जगत् नित्य है, भले ही चेतन का और उसका स्थायी सम्बन्ध नहीं है। आविर्भाव-तिरोभाव, जन्म-नाश आदि विकल्प वाला यह विश्व यथार्थ में तो नित्य और अक्षर ही है। भागवत् पुराण में भी विश्व को अनादि और अनंत बताते हुए लिखा है कि इस समय में वह जैसा है वह पहले भी वैसा ही था और आगे भी इसी रूप में रहेगा। नित्यता में प्रलय या नाश की सम्भावना कैसे हो सकती है इसका रहस्य प्रवाहनित्यता बताया है “गंगा में डुबकी लगाने वाला व्यक्ति उसी जल में फिर डुबकी नहीं लगाता, जिसमें वह एक क्षण पूर्व डुबकी लगा चुका है। जल तो सतत् प्रवहणशील है, वह निरन्तर परिवर्तनशील है, एक क्षण के लिए भी उसमें विराम नहीं है। तब गंगा के उसी जल में डुबकी लगाने 221 / पुराणों में जैन धर्म