________________ 81. Vinternitz "Ascetic Literature in Ancient India" Calcutta University Review, Oct. 1923, p. 3 अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान् अनिष्ट्वा चैव यज्ञैश्च, मोक्षमिच्छन् वजत्यद्यः / / -मनुस्मृति 6.37 अधीतवेदो जपकृत्पुत्रवानन्नदोऽग्निमान् शक्त्यां च यज्ञकृन्मोक्षे मन: कुर्यात्तु नान्यथा / / -याज्ञवल्क्य स्मृति 84. महाभारत, 12.277 85. उत्पन्न ज्ञान विज्ञानी वैराग्य परमं गतः प्रव्रजेद् ब्रहाचर्यात्तु यदीच्छेत्परमां गतिम् // दारान् हत्य विधिवदन्यथा विविधैर्मुखैः यजेदुत्पादयेत्पुत्रान् विरक्तो यदि संन्यसेत् // अनिष्ट्वा विधिवद्यज्ञैरनुत्पाद्य तथाऽऽत्मजान् न गार्हस्थ्यं गृही त्यक्त्वा संन्यसेद् बुद्धिमान् द्विजः अथ वैराग्यवेगेन स्थातुं नोत्सहते गृहे तत्रैव संन्यसेद्विद्वाननिष्ट्वारि द्विजोत्तमः / / -कूर्मपुराण (1) पृ. 71, 3.3-5 86. विष्णुपुराण 112.18-20; 117,75-76 87. मार्कण्डेयपुराण 10 88. () वैदिक संस्कृति में इस प्रकार की अवैदिक विचारधाराओं को श्रमण संस्कृति का प्रभाव माना गया है। (मुनि श्री नथमल “उपनिषद् पुराण और महाभारत में श्रमण संस्कृति - का स्वर” मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ) (ब) विंटरनिट्ज ''The Jain in the History of Indian Literature", p. 7. (धम्मकहानुओगे-पृ. 76) 89. इमं वयं वेयविओ वयंति, जहा न होई असुयाण लोओ। अहिज्ज वेए परिविस्स विज्जे, पुत्ते परिठ्ठप्प गिहंसि जाया / / भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं, आरण्णगा होह मुणी पसत्था / वेया अहिया न भवंति ताणं, मुत्ता दियानिन्ति तमंतमेणं . जाया य पुत्ता न हवंति ताणं को नाम ते अनुमन्नेज्ज एवं // . . जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वात्थि पलायणं जो जाणे म मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया / / -उत्तराध्ययन. 14.8-9, 12, 27 90. उत्तराध्ययन, 10.1 91. काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः / -गीता, 18.2 12. हरिवंशपुराण 3.24.5 93. कहं नु कुजा सामण्णं, जो कामे न निवारइ / / -दशवैकालिक, 2.1 94. एते हि यतय: शुद्धा ज्ञानदीपितचेतसः ज्ञानाग्नि दग्ध: कर्माण: प्राणान् प्राणेषु जुह्वति / / -हरिवंशपुराण, 3.108.11 - 215 / पुराणों में जैन धर्म