________________ भावित नहीं करता, धर्म जागरिका करता है तथा शुद्ध भिक्षा की सम्यक् गवेषणा करता है, उसे अतिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त होता है।६९ उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार-समाधि को चाहने वाला श्रमण प्रमाणयुक्त तथा निर्दोष आहार ग्रहण करे, गुणवान् मित्र को सहायक बनावे तथा एकान्त शान्तस्थान पर साधना करे।६१ व उचित आहार-विहार, साध्य के अनुकूल कार्यसिद्धि हेतु चेष्टाओं तथा उचित निद्रा एवं जागरण युक्त साधक के लिए योग दुःखों का हरण करने वाला होता है.. युक्ताहार-विहारस्य, युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा / / 62 योगाधिकारी का वर्णन करते हुए योगसिद्धि के लक्षण भी मार्कण्डेय पुराण में व्यक्त हैं। जब मनुष्य में प्रेमभाव आये, परोक्ष में गुण-कीर्तन हो तथा कोई जीव उससे भयभीत न हो, यह उसकी सिद्धि का उत्तम लक्षण है। जिसको अत्यधिक भयानक शीत आदि से भी पीड़ा नहीं होती और जो किसी से भी भयभीत न हो, उसको सिद्धि प्राप्त हो गई, ऐसा जानना चाहिए।१६३ / / जैन धर्मानुसार भी योगी के द्वारा सभी जीवों को अभयदान दिया जाता है तथा वह शीत-उष्णादि से पीड़ित नहीं होता। . योग का महत्त्व लिंग पुराणानुसार-योग अप्रमत्त के ही होता है। योग बहुत बड़ा बल है। योग से बढ़कर मनुष्यों के लिए कुछ भी शुभ कार्य दिखाई नहीं देता है, अत: धर्मयुक्त मनीषी योग की प्रशंसा करते हैं / 64 पुराणों में योगधर्म को श्रेष्ठ धर्म कहा है।१६५ योगधर्म इहलोक और परलोक में सभी प्राणियों के लिए हितकर बताया गया है।१६६ इसका आचरण करने से शान्ति प्राप्त होती है और फिर योगियों की गति (मोक्ष) प्राप्त होती है, जो कि दुर्लभ है / 167 _आत्मज्ञान के यत्नरूप यम-नियमादि की अपेक्षा विशिष्ट मनोगति का ब्रह्म (आत्मा) से संयोग होना ही “योग" है। जो इस प्रकार के विशिष्ट धर्म वाले योग में रत रहता है, वह मुमुक्षु योगी कहलाता है। प्रथम योगाभ्यास करने वाला “योगमुक्त" योगी कहा जाता है और जब वह परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है, तब उसे विनिष्पन्न समाधि कहते हैं। विनिष्पन्न समाधि द्वारा योगी के कर्म योगाग्नि से भस्म हो जाते हैं और इसीलिए उसे स्वल्प काल में ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।६८ जैनाचार्य हेमचन्द्र ने भी योग-महत्ता प्रतिपादित करते हुए लिखा है-योग समस्त विपत्ति रूपी लताओं के वितान को काटने के लिए तीखी धार वाले परशु के समान है। योग के माहात्म्य से समस्त विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और मुक्तिरूपी लक्ष्मी स्वयं ही वश में हो जाती है। योग के प्रभाव से विपुलतर पाप भी उसी विशेष आचार / 208