________________ जिनका आत्मा काम-वासनादि विकारों से दूषित तथा लालसाओं से मलिन होगा, वे चाहे कितने ही बीजाक्षरों की रटन एवं सेवन करे, उनको वह सिद्धि कभी नसीब नहीं होगी, जो पवित्र आत्मा को सहज होती है। योग का अधिकारी योग साधना कौन कर सकता है इस पर पुराण तथा जैनधर्म दोनों ने विचार किया है। पुराणों के अनुसार जिस व्यक्ति का मन दृष्टि (लौकिक) एवं आनुश्रविक (वेद वर्णित) पदार्थों या उपायों से विरक्त हो जाता है, उसी का योग में अधिकार होता है, अन्य किसी का नहीं दृष्टे तथानुश्राविके विरक्तं विषये मनः / यस्य तस्याधिकारोऽस्ति योगे नान्यस्य कस्यचित् / / 154 ___ ऐसा व्यक्ति, जो अत्यन्त उत्साहयुक्त हो, वह योगमार्ग में आने वाले विघ्नों को नष्ट कर देता है, इसमें संशय नहीं है।१५५ हरिवंश पुराण में योग के अधिकारी पुरुषों के लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं जो मनुष्य अयाच्य से याचना नहीं करते, शरणागतों की रक्षा करते हैं, दीनों का अपमान नहीं करते, धन का गर्व नहीं करते, उचित आहार-विहार करते हैं, जो अपने कर्मों में शास्रानुसार चेष्टा करते हैं, ईश्वर का ध्यान एवं स्वाध्याय करते हैं, नष्ट वस्तु की खोज नहीं करते, सदैव भोग में लीन नहीं रहते, मधु-माँस का भक्षण नहीं करते, कामपरायण न होकर विप्रों की सेवा करते हैं, जो अनार्य पुरुषों की बातों में आसक्त नहीं होते, आलस्य रहित व अभिमान से अनासक्त होते हैं, सत्संग करते हैं; ऐसे शान्तचित्त, क्रोध को जीतने वाले और मान-अहंकार रहित पुरुषों को ही योगसिद्धि प्राप्त होती है।५६ योग की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है, विशेषतः अल्पबुद्धि मानवों को योगसिद्धि दुर्लभ है, यदि मिल भी जाये तो वे दुर्व्यसनों के आचरण से उसे नष्ट कर देते हैं / 157 श्रद्धापूर्वक योगमार्ग में प्रयत्नशील रहकर हल्का भोजन करते हुए, जितेन्द्रिय रहने वाले पुरुष को योग सिद्धि प्राप्त होती है तथा पक्षी की भाँति अनासक्त, निर्द्वन्द्व तथा निष्परिग्रह होकर विचरने वाले व्यक्ति को योग के फल का प्राप्तकर्ता कहा गया है।५८ योगी को ब्रह्मचिन्तन-योग्य होने के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, स्वाध्याय, शौच, संतोष और तप का निष्काम आचरण आवश्यक है।५९ जैनाचार्य हरिभद्र ने योगाधिकारी का निरूपण इस प्रकार से किया है जो जीव चरमावर्त में रहता है अर्थात् जिसका (संसार-भ्रमण का) काल मर्यादित हो गया है, जिसने मिथ्यात्व-ग्रन्थि का भेदन कर लिया है, जो शुक्लपक्षी है तथा चारित्र पालन करने वाला है, वह योग साधना का अधिकारी है। ऐसा योगी अनादिकालीन भवभ्रमण का अन्त कर देता है / 160 स्थानांग सूत्र में शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान-दर्शन की प्राप्ति के अधिकारी की योग्यताएँ बताई हैं जो मुनि विकथा नहीं करता, आत्मा को असम्यक् 207 / पुराणों में जैन धर्म