________________ अथवा विकल्परहित ध्यान करना चाहता है तो इष्ट तथा अनिष्टरूप जो इन्द्रियों के विषय हैं, उनमें राग-द्वेष और मोह नहीं करें।२८ ध्यान के प्रकार पुराणों में ध्यान प्रमुखतः दो प्रकार का बताया गया है–सविषय तथा निर्विषय। इनको क्रमशः सबीज अथवा विशेषरूपाश्रित एवं निर्बीज अथवा निराकारात्मक संवित्ति भी कहा गया है। स्कंद पुराण में कहा गया है-"ध्यै चिन्तायाम” अर्थात् ध्यै धातु चिन्ता के अर्थ में है, यह चिन्तन करने में सुनिश्चल होती है, अतः यह ध्यान कहा गया है। यह सगुण तथा निर्गुण के ध्यान से दो प्रकार का होता है। सगुण वर्णभेद से कहा गया है और निर्गण का ध्यान केवल माना गया है। यह मंत्र से वर्जित होता है। सविषय तथा निर्विषय ध्यान के पूर्वापर सम्बन्ध को लिंग पुराण में इस प्रकार से स्पष्ट किया गया है-"ध्यान निर्विषय कहा गया है, जो कि आदि में सविषय हुआ करता है। 13 अर्थात्-सविषय ध्यान ही विषय के न रहने पर निर्विषय हो जाता है। सबीज ध्यान का तात्पर्य साकार अर्थात् वस्तु आलम्बन से ध्यान करना है। निर्बीज ध्यान निराकार का होता है, आधारहीन होता है। प्रशस्त ध्यान का वर्णन करते हुए जैन धर्म में भी उसके दो प्रकार बताये है-धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान। धर्मध्यान चार प्रकार का है१. आज्ञाविचय (आगमों के अनुसार पदार्थों का चिन्तन करना), 2. अपायविचय (हेय क्या है? इसका चिन्तन करना), 3. विपाकविच्य (हेय के परिणामों का चिन्तन करना), 4. संस्थानविचय (लोक, शरीर आदि का चिन्तन करना) 31 शुक्लध्यान के भी चार प्रकार है 1. पृथक्त्व-वितर्क-सविचार इस ध्यान में ध्याता द्रव्य एवं पर्याय पर चिंतन करता है, फिर भी ध्येय द्रव्य एक ही रहता है। 2. एकत्व-वितर्काविचारी-योगसंक्रमण से रहित एक पर्याय विषयक ध्यान एकत्ववितर्काविचारी है। 3. सूक्ष्मळिया अप्रतिपाति यह मन-वचन-शरीर के व्यापार का निरोध हो जाने पर तथा मात्र श्वासोच्छ्वास को सूक्ष्म क्रिया शेष रहने पर होता है। 4 समुच्छिन्नक्रिया निवृत्ति जब तीनों योगों (मन-वचन-काय) की प्रवृत्तियाँ पूर्णतया निरुद्ध हो जाती हैं एवं कोई भी सूक्ष्म क्रिया शेष नहीं रहती है, वह विशेष आचार / 202