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________________ बहुत अधिक प्रिय है, अपेक्षा उनके जो केवल अन्य धार्मिक कृत्य का ही सम्पादन करते हैं। अतः निश्रेयस्-सिद्धि के लिए अवश्य ध्यान करें नास्तिं ध्यानसमं तीर्थं, नास्ति ध्यानसमं तपः . नास्ति ध्यानसमो यज्ञस्तस्माद्ध्यानं समाचरेत् // 1 ध्यान अर्थात् चित्त की एकाग्रता (अन्तरमण) को ही सब कुछ बताते हुए कहा है जो बाह्यकर्म के प्रति नहीं परन्तु अन्तर पूजन में प्रीति रखता है. उस महात्मा को बाह्य कर्म करना अनिवार्य नहीं है।१२२ यदि भगवान में चित्त की एकाग्रता नहीं है तो कर्म से भी क्या है और यदि चित्त की एकाग्रता है तो कर्म न करने से भी कोई हानि नहीं- नैकाग्रमेव चेच्चितं किं कृतेनापि कर्मणा। एकाग्रमेव चेच्चितं किं कृतेनापि कर्मणा / 23 जैन धर्म में भी ध्यान को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। ऋषि भाषित (इसिमासियाई) में लिखा है कि शरीर में जो स्थान मस्तिष्क का है, साधना में वही स्थान ध्यान का है।२४ जैन परंपरा के साथ ध्यान उसके अस्तित्व काल से जुड़ा हुआ है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि जैन तीर्थंकरों की प्रतिमायें सदैव ही ध्यान मुद्रा में उपलब्ध होती हैं, अन्य मुद्रा में आज तक उपलब्ध नहीं हुई है। यद्यपि बुद्ध, शिव आदि की भी प्रतिमायें ध्यान मुद्रा में मिलती हैं, फिर भी उनकी अधिकांश प्रतिमायें अभयमुद्रा, वरदमुद्रा, उपदेशमुद्रा तथा शिव की नृत्यमुद्रा आदि में भी उपलब्ध होती है।२५ ध्यान के लिए तो जैनागमों ने यहाँ तक कह दिया है कि ध्यान से तत्काल सिद्धि प्राप्त होती है-“झाणेण तक्खणा सिद्धि”। ' ध्यान का स्वरूप ... ध्यान की एकाग्रचित्तता का वर्णन करते हुए पुराणों का कथन है-ध्यान में ध्याता का चित्त पूर्णतः ध्येय से जुड़ जाता है। ध्यान करने वाला अन्य किसी का ज्ञान ही नहीं रखता है, क्योंकि वह ध्यान में ही चित्त को स्थापित कर देता है। योगी को ध्यान की स्थिति में अन्य का कुछ भी भान नहीं होता और न वह कुछ देखता है, न सूंघता है, तथा न कुछ सुनता ही है। वह ध्याता तो अपनी आत्मा में ही लीन रहता है / 126 लगभग इसी प्रकार से ध्यान का स्वरूप बताते हुए जैन धर्म में भी कहा गया है-ध्यान में किसी प्रकार की चेष्टा नहीं होती अर्थात् काय का व्यापार, बोलने का व्यापार तथा कुछ भी विचार नहीं करना चाहिए। जिससे आत्मा, आत्मा में (स्व .. में) तल्लीन (स्थिर) होवे, वही परमध्यान है।१२७ ध्याता यदि नाना प्रकार के ध्यान . .. 201 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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