________________ कषाय हैं, चिन्ता रूपी सैकड़ों सघन और विस्तीर्ण उसकी शाखाएं हैं। वास्तव में परिग्रह के समान कोई बंधन नहीं है। यह परिग्रह (अज्ञानियों के लिए वो क्या) बुद्धिमानों के लिए भी मगर की तरह क्लेश एवं विनाश का कारण है। नदी के वेग की तरह बढ़ा हुआ परिग्रह क्या क्लेश नहीं करता? अर्थात् सभी अनर्थों का मूल-अनर्थ है। परिग्रह का लोभी प्रसंग आने पर असत्य का भी आश्रय ले लेता है। ममत्व बुद्धि के कारण व्यक्ति धनादि संचित करता है, यथावसर वह धन तो दूसरों के हाथ में चला जाता है और संग्रही को अपने पापकर्मों के दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। . निष्कर्षतः वास्तविक सुख तो तृष्णा मुक्ति से ही संभव है। इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट विषयों में व्याकुलता का परिहार करके निस्पृहता या निर्ममत्व को. धारण करने वाला व्यक्ति ही वास्तव में अपरिग्रही है। अपरिग्रह का विधान पुराण तथा जैन धर्म दोनों में भी किया गया है। परिग्रह के मूल में हिंसा विद्यमान होती है, क्योंकि परिग्रह (धनादि का संग्रह) बिना हिंसा के नहीं होता। अत: व्यक्ति के जीवन में बंधन स्वरूप होने से इसे त्याज्य माना गया है। पूर्व वर्णित अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह-इन पाँचों को जैन धर्म में पंचमहाव्रत तथा अणुव्रत कहा जाता है। इन्हीं को पौराणिक भाषा में पांच यम कहा जाता है। प्रत्येक मानव के. लिए आचरणीय सामान्य धर्मों के अन्तर्गत इनका प्रमुख स्थान है। सामान्य धर्म के ही रूप में मनुस्मृति में चारों आश्रमों एवं चारों वर्षों में अर्थात् सभी के लिए जन्म से लेकर मरण पर्यन्त आचरण करने योग्य धर्म के दस लक्षण कहे हैं—धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी अर्थात आत्मविषयिनी बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध / इनकी तुलना जैनागम स्थानांग सूत्रोक्त इन दस धर्मों से की जा सकती है-थमा, निर्लोभता, सरलता नियभिमानता, लघुत्व, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य / इसी प्रकार याज्ञवल्क्यस्मृति, महाभारत आदि में धर्म के लक्षण कहे गये हैं। पुराणों में भी धर्म के पादरूप में धर्मतत्त्वों का उल्लेख है। हरिवंश पुराणकार के अनुसार शुश्रुषा, दान, सत्य एवं प्राण रक्षा–ये चार पाद हैं तथा श्रीमद् भागवत में तप, शौच, दया, सत्य कहे हैं। इनके अतिरिक्त नियम नामक द्वितीय योगांग के अन्तर्गत अनेक सद्गुणों का उल्लेख है। जिनमें से प्रमुख सदुणों का विवेचन किया जा रहा है। क्षमा ... क्षमा को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान पुराण तथा जैन धर्म में प्राप्त हुआ है। पुराणों में क्षमा को सब दोष हरण करने वाली कहा है। क्षमा. साधु पुरुषों का सार सामान्य आचार / 142