________________ हैं। घोड़ों को (इन्द्रियों रूपी) सुष्ठुप्रकारेण दमन करके, मनरूपी सारथी को आत्मवश करके, ज्ञान रूपी कशा को दृढ़ करके, शरीर को स्थिर करके ही अपनी मक्ति रूपी मंजिल प्राप्त हो सकती है।५ अन्यथा संसार रूपी अटवी में ही भटकना पड़ता है। . जैन धर्म में भी निष्परिग्रही बनने हेतु प्रेरित किया है। अधिक मिलने पर भो संग्रह न करें, परिग्रह वृत्ति से अपने को दूर रखें। परिग्रह ही नहीं, परिग्रह की भावना भी परिहार योग्य है। इसलिए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि जो सदा संग्रह की भावना रखता है, वह साधु नहीं किन्तु (साधुवेश में) गृहस्थ ही है। बाहर से जलती हुई अग्नि को थोड़े से जल से शान्त किया जा सकता है, किन्तु तृष्णा रूपी अग्नि को समस्त समुद्रों के जल से भी शान्त नहीं किया जा सकता। अतः यह नि:संदेह परिहार योग्य ही है। व्यक्ति को इच्छा एवं लोभ का सेवन कभी भी नहीं करना चाहिए। परिग्रह तथा अपरिग्रह के परिणाम जैसा कि महाभारत में आख्यात है कि लोक में जो कामसुख है और स्वर्ग में जो देव सम्बन्धी महान् सुख है, वे तृष्णा के क्षय और संतोष द्वारा प्राप्त सुख के सोलहवें भाग में भी नहीं आते। पंचतंत्र द्वारा भी निर्दिष्ट है कि संतोष रूपी अमृत से तृप्त मनुष्यों को जो सुख और शांति मिलती है, वह धन के लोभी अतृप्त पुरुषों को नहीं मिल सकती। पुराण तथा जैन धर्म में परिग्रहलुब्ध द्वारा दुःख प्राप्ति एवं अपरिग्रही को सुख प्राप्ति का उल्लेख है। परिग्रह लुब्ध को सुख प्राप्ति असंभव बताते हुए पुराणों के अनुसार यह लोभ ही महान् है, लोभ से ही पाप प्रवृत्त होता है, क्रोध उत्पन्न होता है, काम, मोह, माया, मान, ईर्ष्या, अविद्या, अप्राज्ञता, प्रवर्तित होते हैं। परधन-हरण, परस्री-अभिमर्दन आदि सभी प्रकार के दुस्साहसों की तथा अकार्यों की क्रियाएं भी लोभ के कारण ही होती हैं। अतः व्यक्ति को यह लोभ मोहसहित जीत लेना चाहिए। लोभ परित्याग द्वारा ही स्वर्ग प्राप्ति होती है। लोभ परित्याग करने वाला संसार-सागर तैर जाता है। तृष्णा विषय-वासनाधीन की भयंकर दुर्गति का चित्रण इस प्रकार है-हरिण मातंग (हाथी), पतंग, भृग (भ्रमर) तथा मीन ये पाँचों ही पाँचों से उपहत होते हैं अर्थात् हरिण श्रवणेन्द्रिय के अधीन होकर वाद्य श्रवण से, मातंग (हाथी) मदोन्मत्तता से, पतंग दीपक की लौ के प्रेम से, भ्रमर पुष्प रसास्वादन से, मीन गन्धाकर्षण से मृत्यु का ग्रास बनती है। एक-एक इन्द्रिय का आकर्षण भी मृत्यु के मुँह में डाल देता है तो जो मानव अपनी सभी इन्द्रियों के अधीन हो जाता है, वह क्यों नहीं घात योग्य होगा अर्थात् अवश्य ही होगा। परिग्रह के कुफल जैन धर्म में भी इस प्रकार से दर्शाये हैं। जो परिग्रह (संग्रहवृत्ति) में फंसे हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर ही बढ़ाते हैं। एक वृक्ष से परिग्रह को उपमित किया है-परिग्रह रूपी वृक्ष के स्कन्ध अर्थात् तने लोभ, क्लेश और . ..141 / पुराणों में जैन धर्म