________________ heegusagessageregregetarg बाहर निकालकर श्रम की विधि और मूल्य समझाए, तथा जो (द 0 करुणापूर्ण हृदय से उपज रही समस्याओं के समाधान खोजकर उनकी स्थापना मनुष्यों के हृदय में करे। ऐसे समय में, प्रभु ऋषभदेव का अवतरण हुआ। उन्होंने मनुष्य को अकर्म युग से निकालकर कर्म युग की नई व्यवस्थाएं देकर उसका जीवन-मार्ग प्रशस्त किया। जैन मतानुसार, 20 कोटा-कोटि सागरोपम का एक कालचक्र होता है। एक कालचक्र में बारह आरे (भाग) होते हैं। इसके छः आरे अवसर्पिणी काल कहलाते हैं जबकि छ: आरे र उत्सर्पिणी। अवसर्पिणी का सामान्य अर्थ है- अवनति। और 6) उत्सर्पिणी की अर्थ है- उन्नति / अवसर्पिणी कालचक्र में मनुष्य के 2) बल, वीर्य, सुविधाएं, आरोग्य तथा सद्गुण क्रमशः समय के साथसाथ अल्प से अल्पतर होते जाते हैं, जबकि उत्सर्पिणी काल में सद्गुण अल्प से बहुत होते जाते हैं। . वर्तमान काल-प्रवाह अवसर्पिणी काल है। इस कालचक्र में ) प्रथम आरे को सुखमा सुखमा कहा जाता है। दूसरे आरे का नाम 2) है- सुखमा / तृतीय आरा है- सुखमा-दुखमा। चतुर्थ आरा है दुखमा-दुखमा। पंचम आरा है- दुखमा, और अन्तिम तथा छठा ए आर होगा दुखमा-दुखमा। आरों की नामावलि से ही यह सहज जाना जा सकता है कि अवसर्पिणी काल में सुखों का निरन्तर हास क) होता है। सो अवसर्पिणी काल के पहले, दूसरे तथा तीसरे आरे के अन्त और से कुछ पहले तक, तत्कालीन मनुष्यों की इच्छापूर्ति कल्पवृक्षों से र होती थी। उस युग के मनुष्यों को भूख लगती तो वे कल्पवृक्षों के फलों से अपनी क्षुधा मिटा लेते थे। उस समय प्रकृति सहज शान्त தலைமைதை GOLGenergenciest GetressesGeegeesses