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________________ में उल्लिखित कुछ ऋषियों, यथा- नारद, 16 असितदेवल,१७ पिंग,१८ मंखलिपुत्र, संजय 0 (वेलट्टिपुत्त), वर्द्धमान" (निग्गथं नातपुत्त), कुम्मापुत्तर आदि के उल्लेख हैं, किंतु इन सभी को बुद्ध से निम्न ही बताया गया है। दूसरे शब्दों में, वे ग्रंथ साम्प्रदायिक अभिनिवेश से मुक्त नहीं हैं, अतः यह उनका भी पूर्ववर्ती ही है। ऋषिभाषित में उल्लिखित अनेक गाथांश और गाथाएं भाव, भाषा और शब्दयोजना की दृष्टि से जैन परम्परा के सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, धम्मपद आदि प्राचीन ग्रंथों में पाई जाती है, अत: उनकी रचना-शैली की अपेक्षा भी यह पूर्ववर्ती ही सिद्ध होता है। यद्यपि यह तर्क दिया जा सकता है कि यह भी सम्भव है कि ये गाथाएं एवं विचार बौद्धग्रंथ सुत्तनिपात एवं जैनग्रंथ उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक से ऋषिभाषित में गए हैं, किंतु यह बात इसलिए समुचित नहीं है कि प्रथम तो ऋषिभाषित की भाषा, छन्द-योजना आदि इन ग्रंथों की अपेक्षा प्राचीनकाल की है और आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध तथा सुत्तनिपात के अधिक निकट है। दूसरे, जहां ऋषिभाषित में इन विचारों को अन्य परम्पराओं के ऋषियों के सामान्य सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया गया है, वहां बौद्ध त्रिपिटक साहित्य और जैन साहित्य में इन्हें अपनी परम्परा से जोड़ने का प्रयत्न किया गया है। उदाहरण के रूप में, आध्यात्मिक कृषि की चर्चा ऋषिभाषित 23 में दो बार और सुत्तनिपात में एक बार हुई है, किंतु जहां सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि मैं इस प्रकार की आध्यात्मिक कृषि करता हूं, वहां ऋषिभाषित का ऋषि कहता है कि जो भी इस प्रकार की कृषि करेगा, वह चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो, मुक्त होगा। अतः, ऋषिभाषित आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को छोड़कर जैन और बौद्ध परम्परा के अन्य ग्रंथों की अपेक्षा प्राचीन ही सिद्ध होता है। _ भाषा की दृष्टि से विचार करने पर हम यह भी पाते हैं कि ऋषिभाषित में अर्द्धमागधी प्राकृत का प्राचीनतम रूप बहुत कुछ सुरक्षित है। उदाहरण के रूप में, ऋषिभाषित में आत्मा के लिए आता' का प्रयोग हुआ है, जबकि जैन आगम साहित्य में भी अत्ता, अप्पा, आदा, आया आदि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है, जो कि परवर्ती प्रयोग है। 'त' व्यंजन की बहुलता निश्चित रूप से इस ग्रंथ
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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