________________ भी सप्रयोजन है - स्थानांग के पूर्व विवरण से संगति बैठाने के लिए ही ऐसा किया गया होगा। दस और पैंतालीस के इस विवाद को सुलझने के दो ही विकल्प हैं - प्रथम सम्भावना यह हो सकती है कि प्राचीन संस्करण में दस अध्याय रहे हों और उसके ऋषिभाषित वाले अध्याय के 45 उद्देशक रहे हों, अथवा मूल प्रश्नव्याकरण में वर्तमान ऋषिभाषित के 45 अध्याय ही हों, क्योंकि इनमें भी ऋषिभाषित के साथ महावीरभाषित और आचार्यभाषित का समावेश हो ही जाता है। यह भी सम्भव है कि वर्तमान ऋषिभाषित के 45 अध्यायों में से कुछ अध्याय ऋषिभाषित के अंतर्गत और कुछ आचार्यभाषित एवं कुछ महावीरभाषित के अंतर्गत उद्देशकों के रूप में वर्गीकृत हुए हों। महत्त्वपूर्ण यह है कि समवायांग में प्रश्नव्याकरण के 45 अध्ययन न कहकर 45 उद्देशन काल कहा गया है, किंतु प्रश्नव्याकरण से अलग करने के पश्चात् उन्हें एक ही ग्रंथ के अंतर्गत 45 अध्यायों के रूप में रख दिया गया हो। एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि समवायांग में ऋषिभाषित के 44 अध्ययन कहे गए हैं, जबकि वर्तमान ऋषिभाषित में 45 अध्ययन हैं। क्या वर्द्धमान नामक अध्ययन पहले इसमें सम्मिलित नहीं था, क्योंकि इस नाम का अध्ययन पहले इसमें नहीं था, क्योंकि इसे महावीरभाषित में परिगणित नहीं किया जाता था अथवा अन्य कोई कारण था, हम नहीं कह सकते। यह भी सम्भव है कि उत्कटवादी अध्याय में किसी ऋषि का उल्लेख नहीं है, साथ ही यह अध्याय चार्वाक दर्शन का प्रतिपादन करता है, अतः इसे ऋषिभाषित में स्वीकार नहीं किया हो। समवायांग और नंदीसूत्र के मूल पाठों में एक महत्त्वपूर्ण अंतर यह है कि नंदीसूत्र में प्रश्नव्याकरण के 45 अध्ययन हैंऐसा स्पष्ट पाठ है 12, जबकि समवायांग में 45 अध्ययन, ऐसा पाठ न होकर 45 उद्देशन काल हैं, मात्र यही पाठ है। हो सकता है कि समवायांग के रचनाकाल तक वे उद्देशक रहे हों, किंतु आगे चलकर वे अध्ययन कहे जाने लगे हों। यदि समवायांग के काल तक 45 अध्ययनों की अवधारणा होती, तो समवायांगकार उसका उल्लेख अवश्य करते, क्योंकि समवायांग में अन्य अंग आगमों की चर्चा के प्रसंग में अध्ययनों का स्पष्ट उल्लेख है। इस सम्बंध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या निमित्तशास्त्र एवं