SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं, वे भी एक काल के नहीं हैं। समवायांग का विवरण परवर्ती है, क्योंकि उस विवरण में मूल तथ्य सुरक्षित रहते हुए भी निमित्तशास्त्र सम्बंधी विवरण काफी विस्तृत हो गया है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन बताए गए हैं, जबकि समवायांग उसमें 45 उद्देशक होने की सूचना देता है। ‘उवमा' और 'संखा' नामक स्थानांग में वर्णित प्रारम्भिक दो अध्ययनों का यहां निर्देश ही नहीं है। हो सकता है कि ‘उवमा' की सामग्री ज्ञाताधर्मकथा में और ‘संखा' की सामग्री - यदि उसका सम्बंध संख्या से था, तो स्थानांग या समवायांग में डाल दी गई हो। 'कोमलपसिणाई' का भी उल्लेख नहीं है। इन तीनों के स्थान पर असि' 'मणि' . और आदित्य- ये तीनों नाम नए जुड़ गए हैं, पुनः इनका उल्लेख भी अध्ययनों के रूप में नहीं है। समवायांग का विवरण स्पष्ट रूप से यह बताता है कि प्रश्नव्याकरण का वर्ण्य-विषय चमत्कारपूर्ण विविध विद्याओं से परिपूर्ण है। यहां इसिभासियाई, आयरियभासियाई और महावीरभासियाई- इन तीन अध्ययनों का विलोप कर यह निमित्तशास्त्र सम्बंधी विवरण इनके द्वारा कथित है- यह कह दिया गया है। वस्तुतः, समवायांग का विवरण हमें प्रश्नव्याकरण के किसी दूसरे परिवर्द्धित संस्करण की सूचना देता है, जिसमें नैमित्तशास्त्र से सम्बंधित विवरण जोड़कर प्रत्येक बुद्धभाषित (ऋषिभाषित), आचार्यभाषित और वीरभाषित (महावीरभाषित) भाग अलग कर दिए गए थे और इस प्रकार इसे शुद्धरूप से एक निमित्तशास्त्र का ग्रंथ बना दिया गया था। उसे प्रामाणिकता देने के लिए यहां तक कह दिया गया कि ये प्रत्येक-बुद्ध, आचार्य और महावीरभाषित हैं। तत्त्वार्थवार्त्तिक में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो विवरण उपलब्ध है, वह इतना अवश्य सूचित करता है कि ग्रंथकार के सामने प्रश्नव्याकरण की कोई प्रति नहीं थी, उसने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बंध में जो विवरण दिया है, वह कल्पनाश्रित ही है। यद्यपि धवला में प्रश्नव्याकरण के सम्बंध में जो निमित्तशास्त्र से सम्बंधित कुछ विवरण है, वह निश्चय ही यह बताता है कि ग्रंथकार ने उसे अनुश्रुति के रूप में श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा से प्राप्त किया होगा। धवला में वर्णित विषयवस्तु वाला कोई प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में भी रहा होगा, यह कहना कठिन है।
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy