SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सव्वसिद्धानं' और 'नमो सव्व साहूणं' पाठ मिलता है वह महानिशीथ सप्तम अध्याय की चूलिका के प्रचलित पाठ में अनुपलब्ध है। भगवती, प्रज्ञापना, षट्खण्डागम आदि श्वेताम्बर-दिगम्बर आगमों में जो पाठ उपलब्ध होता है, उसमें कहीं भी सिद्ध पद के साथ 'सव्व' (सर्व) विशेषण का प्रयोग नहीं हैं। इसी प्रकार की दूसरी समस्या ‘साहू' पद के विशेषणों को लेकर भी है। वर्तमान में 'साहू' पद के साथ 'लोए' और 'सव्व' इन दो विशेषणों का प्रयोग उपलब्ध होता है। वर्तमान में 'नमो लोए सव्वसाणं' पाठ उपलब्ध है, किंतु अंगविज्जा में 'नमो सव्वसाहून' और 'नमो लोए सव्वसाहूनं' ये दोनों पाठ उपलब्ध हैं। जहां प्रतिहार विद्या और स्वरविद्या सम्बंधी मंत्र में 'नमो सव्वसाहूणं' पाठ है, वहीं अंगविद्या, भूमिकमविद्या एवं सिद्धविद्या में नमो सव्वसाहूणं'- ऐसा पाठ मिलता है। भगवतीसूत्र की कुछ प्राचीन हस्त-प्रतियों में भी लोए' विशेषण उपलब्ध नहीं होता है- ऐसी सूचना उपलब्ध है, यद्यपि इसका प्रमाण मुझे अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। किंतु तेरापंथ समाज में 'लोए' पद रखने या न रखने को लेकर एक चर्चा अवश्य प्रारम्भ हुई थी और इस सम्बंध में कुछ ऊहापोह भी हुआ था, किंतु अंत में उन्होंने 'लोए' पाठ रखा। ज्ञातव्य है कि विशेषण रहित नमो साहूणं' पद कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। अतः नमस्कारमंत्र के पंचम पद के दो रूप मिलते हैं- 'नमो सव्वसाहूणं' और 'नमो लोहे सव्वसाहूणं' और ये दोनों ही रूप अंगविज्जा में उपस्थित हैं। इस सम्बंध में अंगविजा की यह विशेषता ध्यान देने योग्य है कि जहां त्रिपदात्मक नमस्कार मंत्र का प्रयोग है वहां मात्र 'सव्व' विशेषण का प्रयोग हुआ है और जहां पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र का उल्लेख है वहां लोए' और 'सव्व' दोनों का प्रयोग है। जबकि 'सिद्धाणं' पद के साथ पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र में कहीं भी 'सव्व' विशेषण का प्रयोग नहीं हुआ है, मात्र द्विपदात्मक अथवा त्रिपदात्मक नमस्कारमंत्र में ही 'सिद्धाणं' पद के साथ 'सव्व' विशेषण का प्रयोग देखने में आता है। अंगविज्जा में नमस्कारमंत्र में तो नहीं, किंतु लब्धिपदों के नमस्कार सम्बंधी मंत्रों में 'आयरिआणं' पद के साथ 'सव्वेसिं' विशेषण भी देखने को मिला है। वहां पूर्ण पद इस प्रकार है‘णमो माहणिमित्तीणं सव्वेसिं आयरिआणं'। आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख है- 'आयरिअ नमुक्कारेण विजामंता य सिझंति'' इससे यही फलित होता है कि विद्या एवं मंत्रों की साधना का प्रारम्भ आचार्य के प्रति नमस्कार पूर्वक होता है। इसी संदर्भ में 'नमोविज्जाचारणसिद्धाणं तवसिद्धाणं' - ऐसे दो प्रयोग भी (203)
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy