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________________ ईसा की दूसरी शती में चूलिका जुड़ी। द्विपदात्मक नमस्कारमंत्र से पंचपदात्मक . नमस्कारमंत्र के विकास में लगभग एक या दो शताब्दी व्यतीत हुई। खारवेल के अभिलेख और अंगविजा की रचना के बीच जो लगभग 150 वर्षों का अंतर है, वही द्विपदात्मक नमस्कारमंत्र से पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र के विकास का काल माना जा सकता है। जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं- अंगविज्जा में एक पदात्मक, द्विपदात्मक और पंचपदात्मक चारों ही प्रकार के नमस्कारमंत्र का उल्लेख उपलब्ध है। अंगविज्जा के प्रारम्भ में आदि.मंगल के रूप में पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र है, किंतु उसके ही चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में मंगल रूप में 'नमो अरहंताणं'- ऐसा एक ही पद है। पुनः अंगविज्जा के अष्टम अध्याय में महानिमित्तविद्या एवं रूप-विद्या सम्बंधी जो मंत्र दिए गए हैं, उसमें द्विपदात्मक नमस्कारमंत्र 'नमो अरहंताणं' और 'नमो सव्वसिद्धाणं' ऐसे दो पद मिलते हैं। इसमें भी प्रतिरूपविद्या सम्बंधी मंत्र में 'नमो अरहंताणं' और 'नमो सिद्धाणं' ये दो पद मिलते हैं। 'सिद्धाणं' के साथ में 'सव्व' विशेषण का प्रयोग नहीं मिलता है, किंतु महानिमित्तविद्या सम्बंधी मंत्र में “सव्व' विशेषण का प्रयोग उपलब्ध होता है। 'सव्व' विशेषण का उपयोग खारवेल के अभिलेखों में भी उपलब्ध है। अंगविजा में प्रतिहारविद्या सम्बंधी जो मंत्र दिया गया है, उसमें हमें त्रिपदात्मक नमस्कारमंत्र का निर्देश मिलता है। इसमें 'नमो अरहंतानं' 'नमो सव्वसिद्धानं' और 'नमो सव्वसाहूनं' ऐसे तीन पद दिए गए हैं। ज्ञातव्य है कि इसमें सिद्धों और साधुओं के साथ 'सव्व' विशेषण का प्रयोग है। अंगविज्जा के इसी अध्याय में भूमिकर्म विद्या और सिद्धविद्या में पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र उपलब्ध होता है। यह स्पष्ट है कि त्रिपदात्मक नमस्कार मंत्र से 'आयरिआणं' और 'नमो उवज्झायाणं ऐसे दो पदों की योजनापूर्वक पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र का विकास हुआ है। नमस्कारमंत्र की इस विकास यात्रा में इसकी शब्द योजना में भी आंशिक परिवर्तन हुआ है- ऐसा देखा जाता है। प्रथमतः 'नमो सिद्धाणं' में 'सिद्ध' पद के साथ सव्व' विशेषण की योजना हुई और पुनः यह सव्व' विशेषण उससे अलग भी किया गया। अंगविजा और खारवेल का अभिलेख इस घटना के साक्ष्य हैं। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं, जहां खारवेल के अभिलेख में 'नमो सव्वसिद्धानं' पाठ मिलता है वहां अंगविज्जा में 'नमो सिद्धानं' और 'नमो सव्वसिद्धानं' पाठ मिलता है, वहां अंगविज्जा में 'नमो सिद्धानं' और 'नमो सव्वसिद्धानं'- दोनों पाठ मिलते हैं। वर्तमान में जो नमस्कारमंत्र का 'नमो 202
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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