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________________ के काल तक अर्थात् ईसा की दूसरी शती तक नमस्कारमंत्र का पूर्णतः विकास हो चुका था। परम्परागत मान्यता यह है कि 'सिद्धाणं नमो किच्चा' अर्थात् सिद्धों को नमस्कार करके जहां तीर्थंकर दीक्षित होते हैं। जहां तक अरहंत पद का प्रश्न है- भगवती, आचारांग (द्वितीय श्रुतस्कंध), कल्पसूत्र एवं आवश्यकसूत्र के शुक्रस्तव में नमोत्थुणं अरहंताणं' के रूप में अरहंत को नमस्कार किया गया है। सम्भवतः यहीं से नमस्कार मंत्र की विकास यात्रा प्रारम्भ होती है। महानिशीथ सूत्र के प्रारम्भ में नमो तित्थस्स, नमो अरहंताणं- ऐसे दो पद मिलते हैं। इसमें नमस्कार मंत्र का तो मात्र एक ही पद है, फिर उसमें नमो सिद्धाणं' पद जुड़कर द्विपदात्मक नमस्कार मंत्र बना होगा। इस प्रकार प्रारम्भ में नमस्कारमंत्र अरहंत और सिद्ध- ऐसा द्विपदात्मक रहा होगा। यद्यपि आगमों में संयुक्त रूप से द्विपदात्मक नमस्कारमंत्र कहीं उपलब्ध नहीं होता है। मथुरा के ई.पू. प्रथम शती तक के अभिलेखों में कुछ अभिलेखों में 'नमो अरहंता' यह एक पद ही मिलता है। अंगविजा के चतुर्थ अध्याय अंगस्तय' में नमो अरहंताणं' ऐसा एक ही पद है जो अध्याय के आदि में दिया जाता है। इसके पश्चात् अंगविजा के अष्टम अध्याय में द्विपदात्मक, त्रिपदात्मक और पंचपदात्मक नमस्कार मंत्र मिलता है। अंगविजा में मुझे नमस्कारमंत्र की चूलिका नहीं मिली, इस आधार पर यह माना जा सकता है कि चूलिका की रचना अंगविजा की रचना के पश्चात् ही नियुक्तियों के रचनाकाल के समय हुई। इस प्रकार यह तो निश्चित होता है कि चूलिका रहित पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र लगभग ईसा की प्रथम या द्वितीय शताब्दी में अस्तित्व आ गया था। अभी तक की शोधों के आधार पर केवल यह अंगविज्जा के अध्ययन के बिना निश्चित हो पा रहा था कि ईसा की प्रथम शताब्दी में पंचपदात्मक नमस्कारमंत्र का और ईसा की दूसरी शताब्दी में उसकी चूलिका का निर्माण हुआ होगा। उसके पूर्व नमस्कारमंत्र की क्या स्थिति थी?यह विचारणीय है। प्राचीन स्तर के आगमों यथा आचारांग आदि में अरहंत' पद तो प्राप्त होता है, किंतु उसके साथ नमो' पद की कोई योजना नहीं है। आगम में 'नमो' पद पूर्वक सिद्ध पद का प्रयोग उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है। उसमें 'सिद्धाणं नमो' ऐसा प्रयोग मिला है। भगवती और कल्पसूत्र में 'नमोत्थुणं अरहंताणं', ऐसा पद मिलता है, किंतु नमो अरहंताणं, नमो सिद्धाणं' ऐसे दो पद मुझे देखने में नहीं आए। 200
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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