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________________ जा सकता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा ईस्वी सन् की छठवीं शती में प्राकृत भाषा में निबद्ध इस ग्रंथ की लगभग 500 गाथाएं तो आत्मा, कर्म, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, बंधन-मुक्ति आदि अवधारणाओं की तार्किक समीक्षा से सम्बंधित हैं। इस ग्रंथ का यह अंश गणधरवाद के नाम से जाना जाता है और अब स्वतंत्र रूप से प्रकाशित भी हो चुका है। प्रस्तुत निबंध में इस समग्र चर्चा को समेट पाना सम्भव नहीं था, अतः इस निबंध को यहीं विराम दे रहे हैं। वृष्णिदशा : एक परिचय जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अर्द्धमागधी आगम साहित्य के एक वर्ग उपांग साहित्य में बारहवें उपांग के रूप में वृष्णिदशा' का नाम आता है। नन्दीसूत्र में जो कालिक और उत्कालिक सूत्रों की सूची दी गई है, उसमें उत्कालिक सूत्रों के अंतर्गत वृष्णिदशा का नामोल्लेख मिलता है। इससे यह तथ्य तो स्पष्ट हो जाता है कि वृष्णिदशा' नामक इस उपांग का अस्तित्व कम से कम नन्दीसूत्र के पूर्व अर्थात् ईसा की पांचवीं शती के पूर्व था। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि स्थानांगसूत्र में जिन दस दशाओं के उल्लेख हैं, उनमें कहीं भी वृष्णिदशा का उल्लेख नहीं है। वृष्णिदशा का सर्वप्रथम उल्लेख नन्दीसूत्र में ही मिलता है। नन्दीसूत्र की चूर्णि (लगभग सातवीं शती) में प्रस्तुत उपांग का नाम 'अन्धकवृष्णिदशा' दिया गया है। मात्र यही नहीं, चूर्णि अन्धक शब्द का अर्थ भी स्पष्ट करती है और उसे पुल के रूप में उल्लेखित करती है। इससे स्पष्ट है कि वृष्णिदशा का पूर्व नाम अंधकवृष्णिदशा था। कालांतर में अंधक शब्द लुप्त हो गया और केवल, वृष्णिदशा- ऐसा नाम ही शेष रह गया। इसका रचनाकाल ईस्वी सन् की पांचवीं शती से पूर्व है, किंतु इसके रचयिता का कोई उल्लेख नहीं है। ___हरिवंशपुराण में अंधकवृष्णि' का उल्लेख मिलता है। उसमें यह बताया गया कि बलराम, कृष्ण और अरिष्टनेमि का जन्म अन्धकवृष्णि कुल में हुआ था। वहां अन्धकवृष्णि को कृष्ण, बलराम और बाइसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का दादा कहा गया है। अन्धकवृष्णि के समुद्रविजय, वसुदेव आदि दस पुत्र हुए। जहां
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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