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________________ 'हे राजन् ! तू बड़ा मूढ़ मालूम होता है। मैं तुझे एक उदाहरण देकर समझाता हूं। एक बार कुछ वनजीवी साथ में अग्नि लेकर एक बड़े जंगल में पहुंचे। उन्होंने अपने एक साथी से कहा- हे देवानुप्रिय! हम जंगल में लकड़ी लेने जाते हैं, तू इस अग्नि से आग जलाकर हमारे लिए भोजन बनाकर तैयार रखना। यदि अग्नि बुझ जाए, तो लकड़ियों को घिसकर अग्नि जला लेना। उसके साथियों के चले जाने पर थोड़ी ही देर बाद आग बुझ गई। अपने साथियों के आदेशानुसार वह लकड़ियों को चारों ओर से उलट-पलटकर देखने लगा, लेकिन आग कहीं नजर नहीं आई। उसने अपनी कुल्हाड़ी से लकड़ियों को चीरा, उनके छोटे-छोटे टुकड़े किए, किंतु फिर भी आग दिखाई नहीं दी। वह निराश होकर बैठ गया और सोचने लगा कि देखो, मैं अभी तक भी भोजन तैयार नहीं कर सका। इतने में जंगल में से उसके साथी लौटकर आ गए, उसने उन लोगों से सारी बातें कहीं। इस पर उनमें से एक साथी ने शर बनाया और शर को अरणि के साथ घिसकर अग्नि जलाकर दिखाई और फिर सबने भोजन बनाकर खाया। हे पएसी! जैसे लकड़ी को चीरकर आग पाने की इच्छा रखने वाला उक्त मनुष्य मूर्ख था, वैसे ही शरीर को चीरकर जीव देखने की इच्छा वाले तुम भी कुछ कम मूर्ख नहीं हो। जिस प्रकार अरणि के माध्यम से अग्नि अभिव्यक्त होती है, उसी प्रकार आत्मा भी शरीर के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, किंतु शरीर को चीरकर उसे देखने की प्रक्रिया उसी प्रकार मूर्खतापूर्ण है, जैसे अरणि को चीर फाड़कर अग्नि को देखने की प्रक्रिया। अतः, हे राजन्! यह श्रद्धा करो कि आत्मा अन्य है और शरीर अन्य है। ___ यहां यह कहा जा सकता है कि ये सभी तर्क वैज्ञानिक युग में इतने सबल नहीं रह गए हैं, किंतु ई.पू. सामान्यतया चार्वाकों के पक्ष के समर्थन में और उनका खण्डन करने के लिए ये ही तर्क प्रस्तुत किए जाते थे, अतः चार्वाकदर्शन के ऐतिहासिक विकास-क्रम की दृष्टि से इनका अपना महत्त्व है। जैन और बौद्ध-परम्परा में इनमें से अधिकांश तर्क समान होने से इनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता और प्राचीनता भी स्वतःसिद्ध है। जैन साहित्य में दार्शनिक दृष्टि से जहां तक चार्वाक दर्शन के तर्क पुरस्सर प्रस्तुतिकरण एवं समीक्षा का प्रश्न है- सर्वप्रथम उसे आगमिक व्याख्या साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ विशेषावश्यकभाष्य (ईस्वी सन् की छठवीं शती) में देखा (157)
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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