________________ है। कोई भी कषाय दूसरी कषाय से पूरी तरह निरपेक्ष होकर नहीं रह सकती है, अतः किसी एक कषाय का समग्र भाव से विजेता सभी कषायों का विजेता बन जाता है और एक का द्रष्टा सभी का द्रष्टा बन जाता है। कषाय-विजय का उपाय : द्रष्टा या साक्षीभाव आचारांग में मुनि और अमुनि का अंतर स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि जो सोता है, वह अमुनि है, जो जागता है, वह मुनि है। यहां जागने का तात्पर्य है- अपने प्रति, अपनी मनोवृत्तियों के प्रति सजग होना या अप्रमत्तचेता होना है। प्रश्न हो सकता है कि अप्रमत्तचेता या सजग होना क्यों आवश्यक है। वस्तुतः, जब व्यक्ति अपने अंतर में झांककर अपनी वृत्तियों का द्रष्टा बनता है, तो दुर्विचार और दुष्प्रवृत्तियां स्वयं विलीन होती जाती हैं। जब घर का मालिक जागता है, तो चोर प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार जो साधक सजग हैं, अप्रमत्त हैं, तो उनमें कषायें पनप नहीं सकतीं, क्योंकि कषाय स्वयं प्रमाद है, तथा प्रमाद और अप्रमाद एक साथ नहीं रह सकते हैं। अतः, अप्रमाद होने पर कषाय पनप नहीं सकते। आचारांगसूत्र में बार-बार कहा गया है- 'तू देख' 'तू देख (पास पास)। यहां देखने का तात्पर्य है- अपने प्रति या अपनी वृत्तियों के प्रति सजग होना, क्योंकि जो द्रष्टा है, वही निरुपाधिक दशा को प्राप्त हो सकता है। (किमत्थि उवाही पासगस्स, ण विजइ ? नत्थि 1/3/4) / वस्तुतः, आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होती है, संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं, वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियां और मनोभाव भी उसे 'पर'- (स्व से भिन्न) प्रतीत होते हैं। जब वह ‘पर' को 'पर' के रूप में जान लेता है और उनसे अपनी पृथक्ता का बोध कर लेता है, तब वह अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को जानकर उसमें अवस्थित हो जाता है। यही वह अवसर होता है, जब मुक्ति का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने 'पर' को 'पर' के रूप में जान लिया है, उसके लिए ममत्व या राग के लिए कोई स्थान ही नहीं रहता है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है और मुक्ति का द्वार खुल जाता है।