________________ राजप्रश्नीयसूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन राजप्रश्नीयसूत्र अर्द्धमागधी आगम साहित्य के उपांग वर्ग के अंतर्गत आता है। उपांगों में यह दूसरा उपांग है और इस अपेक्षा से इसे सूत्रकृतांगसूत्र का उपांग माना गया है। यद्यपि अंग आगमों से यह समीकरण युक्तिसंगत नहीं है, फि र भी सूत्रकृतांग में जिन विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा है, उनमें से पुनर्जन्म एवं परलोक को नकारने वाले नास्तिकों की समीक्षा इसमें भी है। इस सूत्र के नाम को लेकर विद्वानों में क्वचित् मतभेद भी देखा जाता है। नन्दीसूत्र में इसका नाम 'रायपसेणिय' दिया गया है। आचार्य मलयगिरि ने भी इसे 'रायपसेणीअ' नाम से उल्लेखित किया है। इन दोनों में विशेष अंतर नहीं है, अर्द्धमागधी प्राकृत और महाराष्ट्री प्राकृत की अपेक्षा से यह अंतर है। आचार्य मलयगिरि इसका संस्कृत रूपांतरण ‘राजप्रश्नीयम्' करते हैं, किंतु उनके द्वारा : किया गया यह संस्कृत रूपांतरण परवर्ती है। उनके पूर्व तत्त्वार्थवृत्ति में सिद्धसेनगणि ने इसे 'राजप्रसेनकीय के रूप में उल्लेखित किया है, जिसका अर्थ राजप्रसेन का संवाद- ऐसा हो सकता है। मुनिचंद्रसूरि ने तो इसका नाम राजप्रसेनजित् ही बताया है, जिससे यही सिद्ध होता है कि यह ग्रंथ राजा प्रसेनजित के संवाद से सम्बंधित है। इसके इन नामों में कौन-सा नाम सम्यक् है , यह एक विचारणीय प्रश्न है, क्योंकि इसमें अनेक विप्रतिपत्तियां हैं। मेरी दृष्टि में सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थवृत्ति का राजप्रसेनकीय अथवा मुनिचंद्र द्वारा उल्लेखित राजा प्रसेनजित नाम अधिक उचित प्रतीत नहीं होता है। ज्ञातव्य है कि 'रायपसेणिय'- इस प्राकृत शब्द का संस्कृत रूप राजप्रसेणकीय या राजप्रसेनजित चाहे सम्भव भी हो, फिर भी यह अधिक समीचीन नहीं है, क्योंकि इसमें जिस राजा के साथ संवाद हुआ है, उसे अर्द्धमागधी आगम-साहित्य में 'पएसी' और पालित्रिपिटक में 'पयासी' कहा गया है। पएसी या पायासी को प्रसेनजित का संक्षिप्त रूप नहीं माना जा सकता है। मैं राजप्रसेनजित नाम का पक्षधर हो सकता था, यदि दीघनिकाय के पयासीसुत्त में प्रसेनजित और कुमार श्रमण के मध्य संवाद होने का उल्लेख होता, किंतु सर्वत्र कुमार श्रमण और ‘पएसी' या पयासी' के मध्य हुए संवाद का ही उल्लेख है, न कि कुमार श्रमण और प्रसेनजित के मध्य हुए किसी संवाद का।