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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-94 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-90 के समान ही जैनधर्म में भी ऐसे सन्तों का आविर्भाव हुआ, जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड और आडम्बरयुक्त पूजा-पद्धति का विरोध किया। फलतः, जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें श्वेताम्बर परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर-परम्परा में सन्त तारणस्वामी तथा प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास जन्मना श्वेताम्बर परम्परा के थे, किन्तु उनका सुधारवादी आन्दोलन दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित था। लोकाशाह ने श्वेताम्बर-परम्परा में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और आडम्बरों का विरोध किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोकागच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर-स्थानकवासी-परम्परा विकसित हुई, जिसका पुनः एक विभाजन 18वीं शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी-जीवनदृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक-व्याख्या के आधार पर श्वेताम्बर-तेरापंथ के रूप में हुआ। दिगम्बर परम्परा में बनारसीदास ने भट्टारक-परम्परा के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की और सचित द्रव्यों से जिन-प्रतिमा के पूजन का निषेध किया, किन्तु तारणस्वामी तो बनारसीदास से भी एक कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा का निषेध कर दिया / मात्र यही नहीं, उन्होंने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा की। बनारसीदास की परम्परा जहाँ दिगम्बर-तेरापंथ के नाम से विकसित हुई, वही तारणस्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम से पहचाना जाने लगा। तारणतंथ के चैत्यालयों में मूर्ति के स्थापन पर शास्त्र की प्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार, सोलहवीं शताब्दी में जैन परम्परा में इस्लाम धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप एक नया परिवर्तन आया और अमूर्तिपूजकसम्प्रदायों का जन्म हुआ, फिर भी पुरानी परम्पराएँ यथावत् चलती रही। एक ओर अध्यात्म-साधना, जो श्रमण-संस्कृति की प्राण थी, वह तत्कालीन यतियों के जीवन में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ रही थी। धर्म कर्मकाण्ड से इतना बोझिल बन गया था कि उसकी अन्तरात्मा दब-सी गई थी। धर्म का सहज, स्वाभाविक स्वरूप विलुप्त हो रहा था और उसके स्थान पर धार्मिक-कर्मकाण्डों के रूप में धर्म पर सम्पत्तिशाली लोगों का
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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