________________ जैन धर्म एवं दर्शन-75 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-71 ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अम्बष्ठ' नामक आठवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय पुरुष और शुद्र स्त्री से 'उग्र' नामक नवाँ वर्ण हुआ, ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से निषाद' नामक दसवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय और ब्राह्मणी से ‘सूत' नामक तेरहवाँ वर्ण हुआ, शूद्र पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से 'क्षत्रा' (खन्ना) नामक चौदहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वेदेह' नामक पन्द्रहवाँ वर्ण हुआ और शुद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'चाण्डाल' नामक सोलहवां वर्ण हुआ। इसके पश्चात इन सोलह वर्गों में परस्पर अनुलोम एवं प्रतिलोम-संयोग से अनेक जातियाँ अस्तित्व में आई। . उपर्युक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैनधर्म के आचार्यों ने भी काल-क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में हिन्दू-परम्परा की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया। लगभग सातवीं शती में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने लोकापवाद के भय से तथा जैन धर्म का अस्तित्व और सामाजिक-सम्मान बनाये रखने के लिए हिन्दू-वर्ण एवं जाति-व्यवस्था को इस प्रकार आत्मसात कर लिया कि इस सम्बन्ध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह प्रायः समाप्त हो गया। जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की सृष्टि की। इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि जो क्षत्रिय और वैश्य-वर्ण की सेवा करते हैं, वे शूद्र हैं। इनके दो भेद हैं- कारु और अकारु / पुनः, कारु के भी दो भेद हैं- स्पृश्य और अस्पृश्य / धोबी, नापित आदि स्पृश्य शूद्र है और चाण्डाल आदि, जो नगर के बाहर रहते हैं, वे अस्पृश्य शूद्र है। (आदिपुराण', 16/184/186) शूद्रों के कारु और अकारु तथा स्पृश्य और अस्पृश्य- ये भेद सर्वप्रथम केवल पुराणकाल में जिनसेन ने किये हैं। उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी जैन-आचार्य ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है, किन्तु हिन्दू-समाज-व्यवस्था से प्रभावित होने के बाद के जैन-आचार्यों ने इसे प्रायः मान्य किया। 'षट्प्राभृत' के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की चर्चा की