________________ जैन धर्म एवं दर्शन-74 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-70 पुराणों के रचनाकाल का भी यही युग है। निर्ग्रन्थ-परम्परा में विकृतियों का प्रवेश (अ) हिन्दू वर्ण एवं जाति व्यवस्था का जैनधर्म पर प्रभाव / __ मूलतः श्रमण-परम्परा और जैनधर्म हिन्दू-वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध खड़े हुए थे, किन्तु कालक्रम में बृहद् हिन्दू समाज के प्रभाव से उसमें भी वर्ण एवं जाति-सम्बन्धी अवधारणाएँ प्रविष्ट हो गई। जैन-परम्परा में जाति और वर्ण-व्यवस्था के उद्भव एवं ऐतिहासिक-विकास. का विवरण सर्वप्रथम 'आचारांगनियुक्ति' (लगभग ईस्वी सन् तीसरी शती) में प्राप्त होता है। इसके अनुसार, प्रारम्भ में मनुष्य-जाति एक ही थी। ऋषभ के द्वारा राज्य-व्यवस्था का प्रारम्भ होने पर उसके दो विभाग हो हुये- 1. शासक (स्वामी) 2. शासित (सेवक), उसके पश्चात् शिल्प और वाणिज्य के विकास के साथ उसके तीन विभाग हए- 1. क्षत्रिय (शासक), 2. वैश्य (कृषक और व्यवसायी) और 3. शूद्र (सेवक)। उसके पश्यात् श्रावक-धर्म की स्थापना होने पर अहिंसक, सदाचारी और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को ब्राह्मण (माहण) कहा गया। इस प्रकार, क्रमशः चार वर्ण अस्तित्व में आए। इन चार वर्णों के स्त्री-पुरुषों के समवर्णीय अनुलोम एवं प्रतिलोम–संयोग से सोलह वर्ण बनें, जिनमें सात वर्ण और नौ अन्तर वर्ण कहलाए। सात वर्ण में समवर्णीय स्त्री-पुरुष के संयोग से चार मूल वर्ण तथा ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्रिय स्त्री के संयोग के उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष एवं वैश्य स्त्री के संयोग से उत्पन्न और वैश्य पुरुष एवं शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न, ऐसे अनुलोम संयोग से उत्पन्न तीन वर्ण / 'आचारांगचूर्णि' (ईसा की 7वीं शती) में इसे स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि 'ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग से जो सन्तान उत्पन्न होती है, वह उत्तम क्षत्रिय, शुद्ध क्षत्रिय या संकर क्षत्रिय कही जाती है, यह पाँचवाँ वर्ण है। इसी प्रकार, क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न सन्तान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही जाती है, यह छठवाँ वर्ण है तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्र-स्त्री के संयोग से उत्पन्न सन्तान शुद्ध शूद्र या संकर शूद्र कही जाती है, यह सातवाँ वर्ण है। पुनः, अनुलोम और प्रतिलोम-सम्बन्धों के आधार पर निम्नलिखित नौ अन्तर-वर्ण बने।