________________ जैन धर्म एवं दर्शन-66 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-62 जैनधर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के प्रतिनिधि हैं। ये नयनार एवं पंचमवर्णी के रूप में माने जाते हैं। यद्यपि बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैन-परम्परा कालक्रम में विलुप्त हो गयी है, किन्तु सराक जाति के रूप में उस परम्परा के अवशेष आज भी शेष हैं। ‘सराक' शब्द श्रावक का ही अपभ्रंश रूप है और आज भी इस जाति में रात्रि भोजन और हिंसक-शब्दों जैसे काटो, मारो आदि के निषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं। उपाध्याय ज्ञानसागरजी एवं कुछ श्वेताम्बर-मुनियों के प्रयत्नों से सराक पुनः जैनधर्म की ओर लौटे हैं। उत्तर और दक्षिण के निर्गन्थ श्रमणों में आचार-भेद ___ दक्षिण में गया निर्ग्रन्थ संघ अपने साथ विपुल प्राकृत जैन-साहित्य तो नहीं ले जा सकता, क्योंकि उस काल. तक जैन-साहित्य के अनेक ग्रन्थों की रचना ही नहीं हो पायी थी। वह अपने साथ श्रुत-परम्परा के कुछ दार्शनिक विचारों एवं महावीर के कठोर आचार-मार्ग को ही लेकर चला था, जिसे उसने बहुत काल तक संरक्षित रखा। आज की दिगम्बर-परम्परा का पूर्वज यही दक्षिणी अचेल निर्ग्रन्थ संघ है। इस सम्बन्ध में अन्य कुछ मुददे भी ऐतिहासिक-दृष्टि से विचारणीय हैं। महावीर के अपने युग में भी उनका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतया दक्षिण बिहार ही था जिसका केन्द्र राजगृह था, जबकि बौद्धों एवं पार्खापत्यों का प्रभाव क्षेत्र उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर उत्तरप्रदेश था, जिसका केन्द्र श्रावस्ती था। महावीर के अचेल निर्ग्रन्थ-संघ और पार्श्वनाथ सन्तरोत्तर (सचेल) निर्ग्रन्थ-संघ के सम्मिलन की भूमिका भी श्रावस्ती में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर के सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालन्दा में होना और बुद्ध के श्रावस्ती में होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण का जलवायु उत्तर की अपेक्षा गर्म था, अतः अचलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्ग्रन्थ-संघ को कोई कठिनाई नहीं हुई जबकि उत्तर के निर्ग्रन्थ-संघ में कुछ पार्श्वपत्यों के प्रभाव से और कुछ अति शीतल जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी और एक वस्त्र रखा जाने लगा। स्वभाव से भी दक्षिण की अपेक्षा उत्तर के निवासी अधिक