________________ जैन धर्म एवं दर्शन-65 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-61 महावीर के निर्ग्रन्थ संघ की धर्म प्रसार-यात्रा भगवान् महावीर के काल में उनके निर्ग्रन्थ-संघ का प्रभाव क्षेत्र बिहार एवं पूर्वी उत्तरप्रदेश तथा उनके आसपास का प्रदेश ही था, किन्तु महावीर के निर्वाण के पश्चात इन सीमाओं में विस्तार होता गया, फिर भी आगमों और निर्यक्तियों की रचना तथा जैनधर्म के प्रारम्भिक-विकास-काल तक उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी-राजस्थान के कुछ भाग तक ही निर्ग्रन्थों के. विहार की अनुमति थी। तीर्थकरों के कल्याण क्षेत्र भी यहीं तक सीमित थे। मात्र अरिष्टनेमि ही ऐसे तीर्थकर हैं, जिनका सम्बन्ध शूरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) के अतिरिक्त सौराष्ट्र से भी दिखाया गया है और उनका निर्वाण स्थल गिरनार पर्वत माना गया है, किन्तु आगमों में द्वारिका और गिरनार की जो निकटता वर्णित है, वह यथार्थ स्थिति से भिन्न है। सम्भवतः, अरिष्टनेमि और कृष्ण के निकट सम्बन्ध होने के कारण ही कृष्ण के साथ-साथ अरिष्टनेमि का सम्बन्ध भी द्वारिका से रहा होगा। अभी तक इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक-साक्ष्यों का अभाव है। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा में खोज करें। ___ जो कुछ ऐतिहासिक-साक्ष्य मिले हैं, उससे ऐसा लगता है कि निर्ग्रन्थ-संघ अपने जन्म स्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने प्रचार अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण-बिहार एवं बंगाल से उड़ीसा के रास्ते तमिलनाडु गया और वहीं से उसने श्रीलंका और स्वर्णदेश (जावा-सुमात्रा आदि) की यात्राएँ की। लगभग ई.पू. दूसरी शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण निर्ग्रन्थों को श्रीलंका से निकाल दिया गया, फलतः वे पुनः तमिलनाडु में आ गये। तमिलनाडु में लगभग ई.पू. प्रथम-द्वितीय शती से ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन अभिलेख मिलते हैं, जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि निर्ग्रन्थ-संघ महावीर के निर्वाण के लगभग दो-तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल-प्रदेशों में पहुंच चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करके दक्षिण गये थे। यद्यपि इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकती है, क्योंकि जो अभिलेख घटना का उल्लेख करता है, वह लगभग छठवीं-सातवीं शती का है। आज भी तमिल-जैनों की विपुल संख्या है और वे भारत में