________________ जैन धर्म एवं दर्शन-60 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-56 के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया, यह माना जाता है . कि श्रमणधारा का जन्म वैदिकधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ, किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही है कि वैदिक-धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमणधारा निवृत्तिमार्गी। इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवन मूल्यों का संघर्ष था, किन्तु ऐतिहासिक-दृष्टि से तो श्रमण-धारा का उद्भव, मानव-व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा अध्यात्मिक-मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न थे, जिसमें श्रमण-ब्राह्मण सभी सहभागी बने थे। 'ऋषिभाषित' में इन 'ऋषियों को अर्हत् कहना और 'सूत्रकृतांग' में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, प्राचीनकाल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक-सौहार्द का ही सूचक है। निर्ग्रन्थ-परम्परा का इतिहास . ___ लगभग ई.पू. सातवीं-आठवीं शताब्दी का युग एक ऐसा युग था, जब जनमानस इन सभी श्रमणों, तपस्वियों, योग-साधकों एवं चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को आध्यात्मिक एवं नैतिक-साधना से जोड़ता था, फिर भी वह किसी वर्ग-विशेष से बंधा हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में, उस युग में धर्म-परम्पराओं या धार्मिक-सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था। क्रमशः इन श्रमणों, साधकों एवं चिन्तकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्यों की परम्परा चली और उनकी अलग-अलग पहचान बनने लगी। इसी क्रम में निर्ग्रन्थ-परम्परा का उद्भव हुआ। जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को पापित्य-निर्ग्रन्थ कहने लगे, वहीं वर्द्धमान महावीर के श्रमण अपने को ज्ञात्रपुत्रीय-निर्ग्रन्थ कहने लगे। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षुसंघ शाक्यपुत्रीय-श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा। पार्श्व और महावीर की एकीकृत परम्परा निर्ग्रन्थ धारा के नाम से जानी जाने लगी / निग्गंट्ठ' शब्द हमें जैनधर्म के पूर्व नाम के रूप में ही मिलता है। जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद