________________ जैन धर्म एवं दर्शन-53 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-49 भक्तिमार्ग का ही अपरनाम था। इस प्रकार, उस युग में ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग और अनेयवाद (सन्देहवाद) की परम्पराएँ अलग-अलग रूप में प्रतिष्ठित थीं। महावीर ने अपने अनेकान्तवादी-दृष्टिकोण के द्वारा इनमें समन्वय खोजने का प्रयास किया। सर्वप्रथम उन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यक-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र के रूप में त्रिविध मोक्षमार्ग का एक ऐसा सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसमें ज्ञानवादी, कर्मवादी और भक्तिमार्गी-परम्पराओं का समुचित समन्वय था। इस प्रकार, महावीर एवं जैन-दर्शन का प्रथम प्रयास ज्ञानमार्गीय, कर्ममार्गीय, विभिन्न भक्तिमार्गी, तापस आदि. दृष्टिकोणों के मध्य समन्वय स्थापित करना था। यद्यपि 'गीता' में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की चर्चा हुई है, किन्तु वहाँ इनमें से प्रत्येक को मोक्षमार्ग मान लिया गया है, जबकि जैनधर्म में इनके समन्वित रूप को.मोक्षमार्ग कहा गया। ... जैनधर्म ने केवल वैदिक ऋषियों द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग की परम्परा का विरोध किया, वरन श्रमण-परम्परा के देह-दण्डन की तपस्यात्मक-प्रणाली का भी विरोध किया। सम्भवतः, महावीर के पूर्व पार्श्व के काल तक धर्म का सम्बन्ध बाह्य-तथ्यों से ही जोड़ा गया था। यही कारण था कि ब्राह्मण वर्ग यज्ञ-याग के क्रियाकाण्डों में ही धर्म की इतिश्री मान लेता था। सम्भवतः, जैन-परम्परा में महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थकर पार्श्वनाथ ने आध्यात्मिक साधना में बाह्य-पहलू के स्थान पर उसके आन्तरिक-पहलू पर बल दिया था और परिणामस्वरूप श्रमण-परम्पराओं में भी बौद्ध आदि कुछ धर्म परम्पराओं ने इस आन्तरिक पहलू पर अधिक बल देना प्रारम्भ कर दिया था। लेकिन महावीर के युग तक धर्म एवं साधना का यह बाह्यमुखी दृष्टिकोण पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया था, वरन् ब्राह्मण-परम्परा में तो यज्ञ, श्राद्धादि के रूप में वह अधिक प्रसार पा गया था। दूसरी ओर, जिन विचारकों ने साधना के आन्तरिक पक्ष पर बल देना प्रारंभ किया था, उन्होंने उसके बाह्य-पक्ष की पूरी तरह अवहेलना करना प्रारम्भ कर दिया था, परिणामस्वरूप वे भी एक अति की ओर जाकर एकांगी बन गए। अतः, महावीर ने दोनों ही पक्षों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया और यह बताया कि धर्मसाधना का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन