________________ जैन धर्म एवं दर्शन-32 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-28 अंतश्चेतना धार्मिकता का मूल उत्स (Essence) है, इसे ही दायित्वबोधकी सामाजिक चेतना कहा जाता है। जब यह दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना जाग्रत होती है, तो मनुष्य में धार्मिकता प्रकट होती है। दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जाग्रत होना ही धार्मिक बनने का सबसे पहला उपक्रम है। . यदि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना चाहिए कि हममें धर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों की पीड़ा की आत्मनिष्ठ अनुभूति से जागृत दायित्वबोध की अंतश्चेतना के बिना सारे धार्मिक क्रिया-काण्ड, पाखण्ड या ढोंग हैं। उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म के सम्यक् - दर्शन, जो कि धार्मिकता की आधारभूमि है- के जो पांच अंग माने गए हैं, उनमें समभाव और अनुकम्पा सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक दृष्टि से समभाव का अर्थ है- दूसरों को अपने समान समझना। क्योंकि अहिंसा एवं लोककल्याण की अंतश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि 'जिस प्रकार मैं जीना चाहता हूं, मरना नहीं चाहता हूं उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन के इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत हैं, जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति चाहता हूं और दुःख से बचना चाहता हूं उसी प्रकार विश्व के सभी प्राणी सुख के इच्छुक हैं और दुःख से दूर रहना चाहते हैं। यही वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का, धर्म का और नैतिकता का विकास होता है। जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात् समानता का भाव, जागृत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक् - दर्शन का उदय भी नहीं होता, जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न शेर इस सम्बंध में कितना मौजूं है - ईमां गलत उसूल गलत, इडुआ गलत। इंसां की दिलदिही, अगर इंसां न कर सकें।।