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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-31 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-27 है - . . यही है इबादत, यही है दीनों इमां। कि काम आए दुनिया में, इंसा के इंसा॥ दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न करना, यही धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। संत तुलसीदास जी ने भी कहा है - परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई। अहिंसा की चेतना का विकास तभी सम्भव है, जब मनुष्य में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों के दर्द को अपना दर्द समझेंगे तभी हम लोकमंगल की दिशा में अथवा परपीड़ा के निवारण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। परपीड़ा की यह आत्मानुभूति भी वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होनी चाहिए। हम दूसरों की पीड़ा के मूक दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा, जो दूसरों की पीड़ा की मूक दर्शक बनी रहती है, वस्ततः वह न धर्म है और न अहिंसा। अहिंसा केवल दूसरों को पीड़ा न देने तक सीमित नहीं है, उसमें लोकमंगल और लोककल्याण का अजस्त्र-स्त्रोत भी प्रवाहित है। जब लोक-पीड़ा अपनी पीड़ा बन जाती है, तभी धार्मिकता का स्त्रोत अंदर से प्रवाहित होता है। तीर्थंकरों, अर्हतों और बुद्धों ने जब लोक-पीड़ा की यह अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की, तो वे लोककल्याण के लिए सक्रिय बन गए। जब दूसरों की पीड़ा और वेदना हमें अपनी लगती है तब लोककल्याण भी दूसरों के लिए न होकर अपने ही लिए हो जाता है। उर्दू शायर अमीर ने कहा है * खंजर चले किसी पे, तड़पते हैं हम मीर। सारे जहां का दर्द, हमारे ज़िगर में है। जब सारे जहां का दर्द किसी के हृदय में समा जाता है तो वह लोककल्याण के मंगलमयमार्ग पर चल पड़ता है। उसका यह चलना बाहरी नहीं होता है। उसके सारे व्यवहार में अंतश्चेतना काम करती है और यही
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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