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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-29 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-25 भोजन के बाद भी वह सुस्वादु पदार्थ उपलब्ध होने पर उन्हें खा लेता है। इस प्रकार मनुष्य में एक ओर आत्मसंयम की सम्भावनाएं हैं तो दूसरी ओर वासनाओं से प्रेरित हो कर वह एक अप्राकृतिक जीवन भी जी सकता है। इसीलिए हम कह सकते हैं कि यदि कोई मनुष्य की विशेषता हो सकती है तो वह उसमें निहित आत्म-नियंत्रण या संयम का सामर्थ्य है। इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य में जैविक आवेग तो बहुत हैं, आवश्यकता इस बात की है कि उसके आवेगों को कैसे नियंत्रित किया जाए? जैविक आवेगों के अनियंत्रण का जीवन अधर्म का जीवन है। मनुष्य का धर्म और धार्मिकता इसी में है कि वह आत्मचेतन होकर विवेकशीलता के साथ अपनी वासनाओं को संयमित करे। यदि वह इतना कर पाता है तो ही उसे हम धार्मिक कह सकते हैं। मनुष्य के धार्मिक होने का मतलब है उसकी चेतना सजग रहे और उसका विवेक वासनाओं को नियंत्रित करता रहे। मनुष्य का सामाजिक धर्म ___धर्म को जब हम वस्तु स्वभाव के रूप में ग्रहण करते हैं तो हमारे सामने प्रश्न उपस्थित होता है कि एक मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या है? मनुष्य का मूल स्वभाव मनुष्यता ही हो सकता है, लेकिन प्रश्न है कि मनुष्यता से हमारा क्या तात्पर्य है? वह कौन सा तत्व है जो मनुष्य को पशु से भिन्न करता है। इस सम्बंध में चर्चा करते हुए हमने देखा था कि आत्मचेतना (SelfAwarencess), विवेक और संयम ये तीन ऐसे तत्व हैं जो मनुष्य को अपनी उपस्थिति के कारण पशु से ऊपर उठा देते हैं। ... इन सबके साथ ही एक और विशिष्ट गुण मनुष्य का है जो उसे महनीयता प्रदान करता है, वह है उसकी सामाजिक चेतना। पाश्चात्य विचारकों ने मनुष्य की परिभाषा एक सामाजिक प्राणी के रूप में की है। सामाजिकता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है (चरळिी रीलिळरश्ररळिारश्र) वैसे तो सामूहिक जीवन पशुओं में भी पाया जाता है, किंतु मनुष्य की यह सामूहिक जीवन-शैली उनसे कुछ भिन्न है। पशुओं में पारस्परिक सम्बंध तो होते हैं किंतु उन्हें उन सम्बंधों की चेतना
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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