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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-27 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-23 रूप में करते हैं और मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है तो यह विवेकया ज्ञान का तत्व ही एक ऐसा तत्व है जो इसे पशु से पृथक् कर सकता है। कहा भी गया हैं - आहारनिद्राभयमैथुनंच सामान्यमेतद्पशुभिः नाराणाम्। ज्ञानो ही तेषां अधिको विशेषो, ज्ञानेन हीना नरः पशुभिः समाना॥ - हमसे यह पूछा जा सकता है कि यह विवेकशीलता क्या है? वस्तुतः यदि हम सरल भाषा में कहें तो किसी भी क्रिया के करने के पूर्व उसके सम्भावित अच्छे और बुरे परिणामों पर विचार कर लेना ही विवेक है। हम जो कुछ करने जा रहे हैं या कर रहे हैं उसका परिणाम हमारे लिए या समाज के लिए हितकर है या अहितकर इस बात का विचार कर लेना ही विवेक है। यदि आप अपने प्रत्येक आचरण को सम्पादित करने के पहले उसके परिणामों पर पूरी सावधानी के साथ विचार करते हैं तो आप विवेकशील मानें जा सकते हैं। जिसमें अपने हिताहित या दूसरों के हिताहित को समझने की शक्ति है वहीं विवेकशील या धार्मिक हो सकता है। जो व्यक्ति अपने और दूसरों के हिताहितों परं पूर्व में विचार नहीं करता है वह कभी भी धार्मिक नहीं कहला सकता। यह बात बहुत स्पष्ट है कि जो व्यक्ति अपने प्रत्येक आचरण को करने के पहले तौलेगा, उसके हिताहित का विचार करेगा वह कभी भी दुराचरण, अधर्म और अनैतिकता की ओर अग्रसर नहीं हो सकेगा। इसलिए हम कह सकते हैं कि विवेकशील होना मनुष्य का एक महत्वपूर्ण गुण है और जिस सीमा तक उसमें इस गुण का विकास हुआ है उसी सीमा तक उसमें धार्मिकता है। वस्तुतः जहां जीवन में विवेकशीलता होगी वहां धर्म के नाम पर पनपने वाले छलछद्म अंधश्रद्धा तथा ढोंग और आडम्बर अपने आप ही समाप्त हो जाएंगे। यदि हमें धार्मिक होना है तो हमें सबसे पहले विवेकी बनना होगा। जो व्यक्ति सजग नहीं है, जो अपने आचरण और व्यवहार के हिताहित का विचार नहीं करता है वह कदापिधार्मिक नहीं कहा जा सकता। जहां भी व्यक्ति में सजगता और विचारशीलता का अभाव है, वहीं अधर्म की सम्भावनाएं हैं। यदि हम आत्मचेतनता को सम्यक् - दर्शन
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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