________________ जैन धर्म एवं दर्शन-190 जैन-तत्त्वमीमांसा-42 को समझने के लिए उनके समकालीन विभिन्न आत्मवादों का समालोचनात्मक अध्ययन भी आवश्यक है। यद्यपि भारतीय आत्मवादों के सम्बन्ध में वर्तमान युग में श्री ए.सी. मुकर्जी ने अपनी पुस्तक 'The Nature of Self' एवं श्री एस.के. सक्सेना ने अपनी पुस्तक 'Nature of Conciousness in Hindu Philosophy' में विचार किया है, लेकिन उन्होंने महावीर के समकालीन आत्मवादों पर समुचित रूप से कोई विचार नहीं किया है। श्री धर्मानन्द कौशाम्बीजी द्वारा अपनी पुस्तक 'भगवान् बुद्ध' में यद्यपि इस प्रकार का एक लघु प्रयास अवश्य किया गया है, फिर भी इस सम्बन्ध में एक व्यवस्थित अध्ययन आवश्यक है। पाश्चात्य एवं कुछ आधुनिक भारतीय-विचारकों की यह मान्यता है कि महावीर एवं बुद्ध के समकालीन विचारकों में आत्मवाद-सम्बन्धी कोई निश्चित दर्शन नहीं था। तत्कालीन सभी ब्राह्मण और श्रमण-मतवाद केवल नैतिक-विचारणाओं एवं कर्मकाण्डीय-व्यवस्थाओं को प्रस्तुत करते थे। सम्भवतः, इस धारणा का आधार तत्कालीन औपनिषदिक-साहित्य है, जिसमें आत्मवाद सम्बन्धी विभिन्न परिकल्पनाएं किसी एक आत्मवादी-सिद्धान्त के विकास के निमित्त संकलित की जा रही थीं। उपनिषदों का आत्मवाद विभिन्न श्रमण-परम्पराओं के आत्मवादी-सिद्धान्तों से स्पष्ट रूप से प्रभावित है। उपनिषदों में आत्मा-सम्बन्धी परस्पर विपरीत धारणाएं जिस बीज रूप में विद्यमान हैं, वे इस तथ्य की पुष्टि में सबल प्रमाण हैं। हाँ, इन विभिन्न आत्मवादों को ब्रह्म की धारणा में संयोजित करने का प्रयास उनका अपना मौलिक है। लेकिन, यह मान लेना कि महावीर अथवा बुद्ध के समकालीन विचारकों में आत्मासम्बन्धी दार्शनिक-सिद्धान्त थे ही नहीं, एक भ्रान्त धारणा है। - मेरी यह स्पष्ट धारणा है कि महावीर के समकालीन विभिन्न विचारकों में आत्मवाद सम्बन्धी विभिन्न धारणाएं विद्यमान थीं। कोई उसे सूक्ष्म कहता था, तो कोई उसे विभु। किसी के अनुसार आत्मा नित्य थी, तो कोई उसे क्षणिक मानता था। कुछ विचारक उसे (आत्मा को) कर्ता