________________ जैन धर्म एवं दर्शन-177 जैन-तत्त्वमीमांसा-29 अवधारणा पार्श्वयुगीन थी। 'इसिभासियाई के पार्श्व नामक इकतीसवें अध्याय में पार्श्व के जगत सम्बन्धी दृष्टिकोण का प्रस्तुतिकरण करते हुए विश्व के मूल घटकों के रूप में पंचास्तिकायों का उल्लेख हुआ है। भगवतीसूत्र में महावीर ने पार्श्व को इसी अवधारणा का पोषण करते हुए यह माना था कि लोक पंचास्तिकायरूप है। यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल में जैनदर्शन में काल को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं माना गया था। उसे जीव एवं पुद्गल की पर्याय के रूप में ही व्याख्यायित किया जाता था। प्राचीन स्तर के आगमों में उत्तराध्ययन ही ऐसा आगम है, जहाँ काल को सर्वप्रथम एक स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। यह स्पष्ट है कि जैन-परम्परा में उमास्वाति के काल तक, काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहींइस प्रश्न को लेकर मतभेद था। इस प्रकार, जैन-आचार्यों में तृतीय-चतुर्थ शताब्दी तक काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में दो प्रकार की विचारधाराएँ चल रही थीं। कुछ विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते थे। तत्त्वार्थसूत्र का भाष्यमान् पाठ 'कालश्चेत्येके' का निर्देश करता है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि कुछ विचारक काल को भी स्वतन्त्र द्रव्य मानने लगे थे। लगता है कि लगभग पाँचवीं शताब्दी में आकर काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया था और यही कारण था कि सर्वार्थसिद्धिकार ने 'कालश्चेत्येके सूत्र के स्थान पर 'कालश्च'इस सूत्र को मान्य किया था। जब श्वेताम्बर और दिगम्बर- दोनों ही परम्पराओं में काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मान लिया गया, तो अस्तिकाय और द्रव्य शब्दों के वाच्य विषयों में एक अन्तर आ गया। जहाँ अस्तिकाय के अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल- ये पाँच ही द्रव्य माने गये, वहाँ द्रव्य की अवधारणा के अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल- ये षद्रव्य माने गये। वस्तुतः, अस्तिकाय की अवधारणा जैन-परम्परा की अपनी मौलिक और प्राचीन अवधारणा थी। उसे जब वैशेषिक दर्शन की द्रव्य की अवधारणा के साथ स्वी.त किया गया, तो प्रारम्भ में तो पाँच अस्तिकायों को ही द्रव्य माना गया, किन्तु जब काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई, तो द्रव्यों की संख्या पाँच से बढ़कर छह हो गई। चूँकि आगमों में कहीं भी अस्तिकाय–वर्ग