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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-167 जैन-तत्त्वमीमांसा-19 तो सत् शब्द संग्रहनय का, तत्त्वं नैगमनय का और द्रव्य शब्द व्यवहारनय का सूचक है। सत् अभेदात्मक है, तत्त्व भेदाभेदात्मक है और द्रव्य शब्द भेदात्मक है। चूंकि जैनदर्शन भेद, भेदाभेद और अभेद-तीनों को स्वीकार करता है, अत: उसने अपने चिन्तन में इन तीनों को ही स्थान दिया है। इन तीनों शब्दों में हम सर्वप्रथम सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करेंगे। यद्यपि अपने व्युत्पत्तिपरक अर्थ की दृष्टि से सत् शब्द सत्ता के अपरिवर्तनशील, सामान्य एवं अभेदात्मक-पक्ष का सूचक है, फिर भी सत् के स्वरूप को लेकर भारतीय- दार्शनिकों में मतैक्य नहीं है। कोई उसे अपरिवर्तनशील मानता है, तो कोई उसे परिवर्तनशील, कोई उसे एक कहता है, तो कोई अनेक, कोई उसे चेतन मानता है, तो कोई उसे जड़। वस्तुतः, सत्, परम तत्त्व या परमार्थ के स्वरूप सम्बन्धी इन विभिन्न दृष्टिकोणों के मूल में प्रमुख रूप से तीन प्रश्न रहे हैं। प्रथम प्रश्न उसके एकत्व अथवा अनेकत्व का है। दूसरे प्रश्न का सम्बन्ध उसके परिवर्तनशील या अपरिवर्तनशील होने से है। तीसरे प्रश्न का विवेच्य उसके चित् या अचित् होने से है। ज्ञातव्य है कि अधिकांश भारतीय-दर्शनों ने चित्त-अचित्त, जड़-चेतन या जीव-अजीव- दोनों तत्त्वों को स्वीकार किया है, अतः यह प्रश्न अधिक चर्चित नहीं बना, फिर भी इन सब प्रश्नों के दिये गये उत्तरों के परिणामस्वरूप भारतीय–चिन्तन में सत् के स्वरूप में विविधता आ गयी। सत् के परिवर्तनशील या अपरिवर्तनशील पक्ष की समीक्षा - सत् के परिवर्तनशील अथवा अपरिवर्तनशील स्वरूप के सम्बन्ध में दो अतिवादी अवधारणाएँ हैं। एक धारणा यह है कि सत् निर्विकार एवं अव्यय है। त्रिकाल में उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। इन विचारकों का कहना है कि जो परिवर्तित होता है, वह सत् नहीं हो सकता। परिवर्तन का अर्थ ही है कि पूर्व अवस्था की समाप्ति और नवीन अवस्था का ग्रहण। इन दार्शनिकों का कहना है कि जिसमें उत्पाद एवं व्यय की प्रक्रिया हो, उसे सत् नहीं कहा जा सकता। जो अवस्थान्तर को प्राप्त हो, उसे सत् कैसे कहा जाय? इस सिद्धान्त के विरोध में जो सिद्धान्त अस्तित्व में आया, वह सत् की परिवर्तनशीलता का सिद्धान्त है। इन विचारकों के अनुसार, . परिवर्तनशीलता या अर्थक्रियाकारित्व की सामर्थ्य ही सत् का लक्षण है।
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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