________________ जैन धर्म एवं दर्शन-163 जैन-तत्त्वमीमांसा-15 परवर्ती जैन विचारकों ने काल को भी विश्व के परिवर्तन के मौलिक कारण के रूप में या विश्व में होने वाले परिवर्तनों के नियामक तत्त्व के रूप में स्वतन्त्र द्रव्य माना है। इसकी विस्तृत चर्चा आगे पंचास्तिकायों और षद्रव्यों के प्रसंग में की जायेगी। यहाँ हमारा प्रतिपाद्य तो यह है कि जैन-दार्शनिक विश्व के मूलभूत उपादानों के रूप में पंचास्तिकायों एवं षद्रव्यों की चर्चा करते हैं। विश्व के इन मूलभूत उपादानों को द्रव्य अथवा सत् के रूप में विवेचित किया जाता है। द्रव्य अथवा सत् वह है, जो अपने आप में परिपूर्ण, स्वतन्त्र और विश्व का मौलिक घटक है। जैन-परम्परा में सामान्यतया सत्, तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, पर-अपर ध्येय, शुद्ध और परम-इन सभी को एकार्थक या पर्यायवाची माना गया है। बृहनयचक्र में कहा गया है ततं तह परमठें दव्वसहायं तहेव परमपरं। धेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुंति अभिहाणा || -बृहनयचक्र, 411 - जैनागमों में विश्व के मूलभूत घटक के लिए अस्तिकाय, तत्त्व और द्रव्य शब्दों का प्रयोग मिलता है। उत्तराध्ययनसूत्र में हमें तत्त्व और द्रव्य के, स्थानांग में अस्तिकाय के उल्लेख मिलते हैं। कुंदकुंद ने अर्थ, पदार्थ, तत्त्व, द्रव्य और अस्तिकाय-इन सभी शब्दों का प्रयोग किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि आगमयुग में तो विश्व के मूलभूत घटकों के लिए अस्तिकाय, तत्त्व, द्रव्य और पदार्थ शब्दों का प्रयोग होता था। 'सत्' शब्द का प्रयोग आगम-युग में नहीं हुआ। उमास्वाति ने द्रव्य के लक्षण के रूप में 'सत' शब्द का प्रयोग किया है। वैसे, अस्तिकाय शब्द प्राचीन और जैनदर्शन का अपना विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है। यह अपने अर्थ की दृष्टि से सत्. के निकट है, क्योंकि दोनों ही अस्तित्व लक्षण के ही संचक हैं। तत्त्व, द्रव्य और पदार्थ शब्द के प्रयोग सांख्य और न्याय-वैशेषिकदर्शनों में भी मिलते हैं। - तत्त्वार्थसूत्र (5/29) में उमास्वाति ने भी द्रव्य और सत्-दोनों को अभिन्न बताया है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि सत्, परमार्थ, परमतत्त्व और द्रव्य सामान्य दृष्टि से पर्यायवाची होते हुए भी विशेष दृष्टि